*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-8
लखहु बिभीषन दिसि दक्खिन महँ।
गरजहिं बादर रहि-रहि नभ महँ।।
रहि-रहि बिजुरी चमकि रही जनु।
ओल-बृष्टि करिहैं जग अब घनु।।
तब प्रभु सन अस कहहिं बिभीषन।
ना तड़ित,न बादर नाथ गगन।।
अद्भुत लंक-सिखर रँगसाला।
नृत्य-गान तहँ होंय निराला।।
घन इव कारा अरु बिकराला।
धरि सिर छत्र लखै नटसाला।।
रावन जाइ तहाँ रस भोगै।
बिषय-भोगरत निज रुचि जोगै।।
चमक गगन नहिं दामिनि होवै।
कुंडल कर्ण मँदोदरि सोहै।।
गरजन घन-घमंड नहिं होई।
थाप मृदंग-पखावज सोई।
तुरत राम धनु-सायक काटा।
कुंडल-छत्र तिनहिं जे ठाटा।।
कउ लखि सका न रामहिं काजा।
जदपि रहे सभ उहहिं बिराजा।।
पुनि प्रबिसा सर आइ निषंगा।
अचरज करि रँग डारि क भंगा।।
बिनु भूकंप न बायु सँजोगा।
लखा न कोऊ सस्त्र-प्रयोगा।
अस कस भयो अचंभित सबहीं।
सोचे सभ जनु असगुन भवहीं।
दोहा-देखि सबहिं भयभीत तहँ,बिहँसि कहा लंकेस।
सीष-मुकुट कै अस पतन,जानहु सुभ संदेस।।
जावहु सभ निज-निज गृहहिं,करहु सयन-बिश्राम।
होहि मोहिं सुभ अस पतन,असगुन मुकुट न काम।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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