डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-21

सुनि मंदोदरि-बचन कुठारा।

होत प्रात पुनि सभा पधारा।।

    रावन बैठा तुरत सिंहासन।

     भूलि त्रासु सगर्व निज आसन।।

राम कहे सुनु बालि-कुमारा।

कस फेंके किरीट रिपु चारा।।

     हे अंगद मोंहि मरम बतावउ।

     किन्ह अइसन कस अबहिं जतावउ।।

अंगद कह प्रभु राम गोसाईं।

मुकुट न हों तुम्ह जानउ साईं।।

    धरमहिं-नीति-चरण ई चारा।

    करम करहिं नृप जे बिधि सारा।।

साम-दाम-अरु दंड-बिभेदा।

नृप-गुन चार कहहिं अस बेदा।।

     रावन दुष्ट हीन गुन चारी।

      प्रभु-पद-सरन लिए सुबिचारी।।

अस सुनि बिहँसि उठे रघुराई।

पुनि अंगद सभ बात बताई।।

    नाथ सुबिग्य-प्रनत-सुखकारी।

     रावन मुकुटहिं चरन पधारी।।

पाके समाचार रघुराई।

सचिवहिं सबहीं निकट बुलाई।।

     कहा लंक महँ चारि दुवारा।

     सोचहु कइसे लागहि पारा।।

तब कपीस-बिभीषन-जमवंता।

मन महँ सुमिरि राम भगवंता।

    दृढ़-प्रतिग्य चारि कपि-सेना।

     सेनापती बना तिन्ह देना।।

किए पयान लंक की ताईं।

करत नाद केहरि की नाईं।।

     प्रभु-चरनन झुकाइ सिर चलहीं।

    निज कर गहि गिरि-खंडन्ह धवहीं।।

जय-जय करत कोसलाधीसा।

लछिमन सँग जमवंत-कपीसा।

      प्रभु-महिमा-बल लेइ असंका।

     गरजत-तरजत चलहिं निसंका।।

घिर चहुँ-दिसि जिमि कज्जर बादर।

भेरि जावत मुखन्ह बराबर।

      जदपि अभेद्य दुर्ग बहु लंका।

       तदपि चलहिं सभ पीटत डंका।।

दोहा-आवत लखि कपि-रीछ-दल,मचा कोलाहल लंक।

        अस सुनि तब रावन अभी,बिहँसा होइ निसंक।।

                     डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

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