*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-21
सुनि मंदोदरि-बचन कुठारा।
होत प्रात पुनि सभा पधारा।।
रावन बैठा तुरत सिंहासन।
भूलि त्रासु सगर्व निज आसन।।
राम कहे सुनु बालि-कुमारा।
कस फेंके किरीट रिपु चारा।।
हे अंगद मोंहि मरम बतावउ।
किन्ह अइसन कस अबहिं जतावउ।।
अंगद कह प्रभु राम गोसाईं।
मुकुट न हों तुम्ह जानउ साईं।।
धरमहिं-नीति-चरण ई चारा।
करम करहिं नृप जे बिधि सारा।।
साम-दाम-अरु दंड-बिभेदा।
नृप-गुन चार कहहिं अस बेदा।।
रावन दुष्ट हीन गुन चारी।
प्रभु-पद-सरन लिए सुबिचारी।।
अस सुनि बिहँसि उठे रघुराई।
पुनि अंगद सभ बात बताई।।
नाथ सुबिग्य-प्रनत-सुखकारी।
रावन मुकुटहिं चरन पधारी।।
पाके समाचार रघुराई।
सचिवहिं सबहीं निकट बुलाई।।
कहा लंक महँ चारि दुवारा।
सोचहु कइसे लागहि पारा।।
तब कपीस-बिभीषन-जमवंता।
मन महँ सुमिरि राम भगवंता।
दृढ़-प्रतिग्य चारि कपि-सेना।
सेनापती बना तिन्ह देना।।
किए पयान लंक की ताईं।
करत नाद केहरि की नाईं।।
प्रभु-चरनन झुकाइ सिर चलहीं।
निज कर गहि गिरि-खंडन्ह धवहीं।।
जय-जय करत कोसलाधीसा।
लछिमन सँग जमवंत-कपीसा।
प्रभु-महिमा-बल लेइ असंका।
गरजत-तरजत चलहिं निसंका।।
घिर चहुँ-दिसि जिमि कज्जर बादर।
भेरि जावत मुखन्ह बराबर।
जदपि अभेद्य दुर्ग बहु लंका।
तदपि चलहिं सभ पीटत डंका।।
दोहा-आवत लखि कपि-रीछ-दल,मचा कोलाहल लंक।
अस सुनि तब रावन अभी,बिहँसा होइ निसंक।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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