विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल

समाँ यूँ ख़ुशनुमा होने लगा है 

अंदेशा प्यार का होने लगा है


निगाहें इस क़दर वो मदभरी हैं

मिलाते ही  नशा होने लगा है 


वो आये जब से मेरी ज़िन्दगी में

ज़माना ही खफ़ा होने लगा है 


दिखाओ इतने भी नखरे न जानम 

मज़ा भी बेमज़ा होने लगा है 


कभी सोचो तो इस जानिब भी कोई

ज़माना क्या से क्या होने लगा है


जो तुम आने लगे हो रोज़ साग़र

चमन दिल का हरा होने लगा है


विनय साग़र जायसवाल

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...