नूतन लाल साहू

 लाचारी


कौन सा विश्वास मुझको

खींचता जाता है निरंतर

आखिरी मंजिल नहीं होती

कहीं भी दृष्टिगोचर

एक भी संदेश आशा का

जीवन में नहीं मिला

यह कैसी लाचारी है

मिल गया मांगा बहुत कुछ

पर कहां संतोष मन में

दोष दुनिया का नहीं हैं

यदि कहीं है तो,दोष मन में

दुनिया अपनी,जीवन अपना

यह सत्य नहीं,केवल है मन सपना

यह कैसी लाचारी है

कौन तपस्या करके कोकिल

इतना सुमधुर सुर पाया

पर ऐसी क्या घटना हुई

काली कर डाली काया

यह कैसी लाचारी है

देख कहीं कोई तरू सूखा

द्रवित हुई होंगी मन में

हरे नहीं होते तरु सुखे

नियम प्रकृति का युग चिर से

जिस निश्चय से अर्धरात्रि में

गौतम निकले थे घर से

यह कैसी लाचारी है

हर पल में तेरा स्वर बदला

पल में बदली तेरी सोच

यह बुरा है या है अच्छा

व्यर्थ सोच,इस पर दिन बिताना

असंभव लगा तो,छोड़ वह पथ

दुसरे पथ पर पग बढ़ाना

यह कैसी लाचारी है

नूतन लाल साहू

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