डॉ० रामबली मिश्र

 देखो…(चौपाई)


देखो घूर-घूर कर भाई।

यही प्रेम की शुद्ध दवाई।।


आँख न मूँद देख जगती को।

सींचो नयनों से धरती को।।


लाओ हरितक्रांति प्रिय वंदे।

प्रेमक्रांति अंतस में वंदे।।


घूरो किन्तु प्रेमवत प्यारे।

जैसे लगे प्रेम है द्वारे।।


असहज बनकर नहीं देखना।

सहज भाव से मिलकर रहना।।


सहज भाव में है परिवारा।

देख सहज बनकर संसारा।।


सदा सहजता में अपनापन।

नब्बे वर्षों में भी बचपन।।


उठतीं प्रेम तरंगें झिलमिल।

होती चाह रहें सब हिलमिल।।


रहे दृष्टि अति  सुंदर निर्मल।

साफ-स्वच्छ अति पावन उज्ज्वल।।


घूर-घूर कर खूब देखिये।

राही बनकर खूब पीजिये।।


मन-काया में दाग लगे ना।

काम वासना कभी जगे ना।।


यह शाश्वत सन्तों की वाणी।

देख प्रेम से सारे प्राणी।।


चाहे घूरो या कि निहारो।

सबको ईश्वर समझ पुकारो।।


इसी दृष्टि को विकसित कर लो।

खुद की जग की पीड़ा हर लो।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801


प्रेम करोगे।   (तिकोनिया छंद)


प्रेम करोगे,

सुखी रहोगे।

विश्व रचोगे।।


सुंदर मन बन,

स्वस्थ करो तन।

श्रम से अर्जन।।


घृणा न करना,

संयम रखना।

शीतल बनना।।


दिल से लगना,

मधुर बोलना।

इज्जत करना।।


रच मानवता,

दिव्य एकता।

सतत सहजता।।


बन आत्मवत,

रहो प्रेमवत।

खिलो सत्यवत।।


रचनाकार:डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

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