*तुम हो....(ग़ज़ल)*
तुम हो मेरा प्रेम समंदर।
मैं हूँ प्यासा प्रेम धुरंधर।।
तुम वादल बन छा जाओ अब।
तृप्त करो प्रिय सहज बरस कर।।
तन-मन-उर अति दग्ध दीखते।
प्रेमसिंधु बन आ मेरे घर।।
तेरी बूँदों का मैं लोभी।
लोभ दूर कर सतत तृप्त कर।।
अधरों पर सागर की लहरें।
लहरों से ही आलिंगन कर।।
कजरारी आँखों को मोड़ो।
खुश कर दो आँखों में भर कर ।।
प्रेम तरंग उच्च वक्षस्थल।
दो वक्षों का मधुर भाव स्वर।।
प्रेम दिवस ही पर्व बने नित।
खुश हो दुनिया सहज प्रेम कर।।
बने पूर्णिमा प्रेम पूर्णिमा।
सदा पूर्णिमा हो जीवन भर।।
अंग-अंग से प्रेम बहे नित।
आओ प्यारे प्रेम किया कर ।।
प्रेम विरत होना मत प्रियतम।
बनकर एकाकार प्रेम कर ।।
रहे समाया सिंधु बूँद में।
प्रेम सिंधु अब आ शीतल कर।।
तन-मन-उर को सोख स्वयं में।
आत्मतोष दे सकल प्रेम भर।।
कातर मन के तुम शरणालय।
इसको आश्रय दान दिया कर।।
अपने उर के प्रेम सिंधु में।
डुबो-डुबो कर प्यार किया कर।।
डॉ० रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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