सुनीता असीम

 हुआ जो साथ मेरे हादसा था।

वो जीवन का मेरे फ़लसफ़ा था।

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खोई थी नींद आँखों से कहीं पर।

औ दिल का चैन भी तो लापता था।

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तेरे दरबार  पर  नज़रें   लगी थीं।

कहां पट तब तलक तेरा खुला था।

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मगर दीदार  भी था फक्त मुश्किल।

तेरी यादों का केवल सिलसिला था।

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लगी थी प्यास सूखे कंठ में   तब।

न कोई ताल था पर जल मिला था।

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भरोसा हो गया तेरी महर पर।

कृपा तेरी मिली तन भीगता था।

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बरसते आंख से आंसू न रुकते।

कोई था पुण्य जो ऐसे फला था।

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रज़ा उनकी न इसमें कैसे माने।

उन्हीं की ओर मन ये भागता था।

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सखी है कृष्ण की अब तो सुनीता।

रहा अन्तिम ये उसका फैसला था।

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सुनीता असीम

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