नाम- उषा जैन कोलकाता
पिता का नाम- स्वर्गीय जय नारायण अग्रवाल
माता का नाम - स्वर्गीय पार्वती देवी अग्रवाल
पति का नाम - मोहन लाल जैन
जन्मतिथि 12/11/1965
स्थाई पता
नाम Usha jain
पता 12b balram dey street near
Jorasanko post office
Kolkata 700006
पत्राचार पता उपरोक्त
मो0 नम्बर-9330213661 /8240672341
ईमेल usha12b13@gmail.com
शैक्षिक योग्यता - Metric
रुचि कविता लिखना खाना बनाना भ्रमण करना सामाजिक कार्य में भाग लेना
भाषा ज्ञान - हिंदी बंगाली हरियाणवी अंग्रेजी गुजराती
पदनाम - गृहिणी
प्रकाशित रचनाएं
सांझा संकलन अभ्युदय द्वारा प्रकाशित पुस्तक प्रतिबिंबित जीवन में
8 कविताएं प्रकाशित
*हस्ताक्षर*
Usha jain
काव्य रंगोली आज का सम्मानित रचनाकार कॉलम हेतु
1. रिश्ते और एहसास
रिश्ते तो मीठी चासनी कि चास हैं
रूह से जुड़े हुए अनछुए एहसास है
दिल से दिल के तार हो जुड़े हुए
प्यार में फर्क नहीं पड़ता चाहे दूर या पास है
अलग-अलग फूलों का गुलिस्ता अलग-अलग फूलों से निकली सुवास है
हर वक्त यकीन दिलाने के लिए क्यों शब्दों का इजहार हो
क्या वह काफी नहीं कि आंखों मे छलकता प्यार हो
बूढ़ी होती उम्र में बूढ़े होते अल्बमो से
ढूंढ रहे हैं कुछ रिश्ते धुंधली सी तस्वीरों से
हाथ और आंखों से छू उन चेहरों को टटोलते
उनसे जुड़ी हर बात को यादों में खंगोलते
उनसे मिलने की ललक हर वक्त क्यों रहने लगी
क्यों आंखें उनके चेहरे को हर चेहरों में ढूंढने लगी
पर वरदान बन के आई है नई टेक्नोलॉजी उनके लिए
जो तरस रहे थे एक झलक अपनों की देखने के लिए
आज उनके हाथ में हैउनके अपनो की तस्वीरें
चेहरा देखकर कर सकते हैं उनसे अपने मन की तकरीरे
स्वरचित उषा जैन कोलकाता
2. सच्चा सुख
सुख की अदम्य चाह में तुम
क्यू अपना आज तमाम करते हो
सुख तो तुम्हारे अंदर है
क्यों उसे बाहर तलाश करते हो
सुख तो है मरुस्थल की मरीचिका
एक छलावे से छले जाओगे
एक प्यास अगर बुझ भी भी गई
और भी प्यासे तुम खुद को पाओगे
ता उम्र मशक्कत करते ही रहे
सुख का साजो समान पाने में
भागते दौड़ते रहे तुम हरदम
महंगी गाड़ी बंगले का सुख जुटाने में
दो पल सुकून का न पाया कभी
मारे मारे फिरते रहे जमाने मे
आखिर हासिल तो तुमने कर ही लिया
अपनी जिंदगी के सुनहरे पल खोकर
पहुंच गए जिंदगी के उस पड़ाव में तुम
उम्र बीत गई इनके सुख को भोग पाने की
सच्चे सुख को गिरवी रख दिया तुमने
झूठे सुख को उधार लेने मे
खो गए सारे अरमान और ख्वाब तेरे
जो तुमने देखे थे किसी जमाने में
तन में घर कर गए हैं मर्ज कितने
हाफ जाते हो कुछ दूर चलने में
सामने रखे हो तेरे ढेरों पकवान
पर उबला खाना है तेरी नियति मे
अपनी नींदे सुकून से ले जो सको
आश्रित तुम दवा पर होते हो
बीत गई उम्र बहार की तेरी
रात दिन मशक्कत ही करते हुए
बेमज़ा हो रही जिंदगी अब तो
खाली तन-मन का भार ढोने में
याद करो अपने गुजरे हुए लम्हों को
छोटी-छोटी बातों में खुशियाँ पाते थे
करके मेहनत जो लौटते थे तुम घर
रोटी दाल में ही कितना सुख पाते थे
फिर जो लगती थी दोस्तों की जमघट
सबके दिल खोल ठहाके लगते थे
वही तो सच्चे सुख थे तेरे जीवन के
भूल नहीं पाते क्यों उन पल वो जीवन के
फिर वही तरसना है गुजरे हुए लम्हों की
स्वरचित उषा जैन कोलकाता
3. अगले दिन
दुनिया से जो लोग हमेशा को चले जाते हैं
कुछ नहीं ले जाते हैं सब छोड़ यही चले जाते है
अपना जोड़ा हुआ सामान और असबाब
वो कपड़े वो ऐनक उनका वो साजो सामान
अगले ही दिन वो सब कबाड़ में गिने जाते है
वो पुरानी सी तस्वीरें कुछ पुराने से खत
जिनको संजो के रखा था अलमारी में अब तक
होकर लावारिस से वो रद्दी में बदल जाते हैं
वो बड़ा सा गलीचा वो एक पुराना हारमोनियम सजती थी दोस्तों की महफिल गूंजती थी सरगम पुरानी चीजों की बिक्री की कतार में नजर आते हैं
वो जो आंगन में रहती थी सदा एक चारपाई
जिसमें गर्मी की रातें और जाड़े की धूप गुनगुनाई
निकृष्ट वस्तुओं से घर के बाहर निकाले जाते है
घर के चौबारे में जो होती थी गोष्टीया अक्सर
अब वह चौबारा भी बेजार नजर आता है
छोड़ जाते हैं हैं विरासत में वो खट्टी मीठी यादें
जिसको चाह कर भी लोग जहन से निकाल नहीं पाते
सिर्फ रह जाएंगी उनकी बातें और कहानी किस्से
जिनको लोग अक्सर अफसानो में बयां करते हैं
स्वरचित उषा जैन कोलकाता
4. सत्ता और कुर्सी
सत्ता के गलियारे में कुर्सी का है खेल
कुर्सी को पाने की खातिर रचते नित नया खेल
सत्ता ही सब कुछ है इनकी जीवनदायिनी है
सत्ता ही तो माई बाप है सत्ता ही जीवनसंगिनी है झूठे वादे करते है कितना प्रपंच ये करते है
खरीद फरोख्त की वस्तुओं जैसे चंद् रूपए में बिकते है
बेपेंदी के लोटे जैसे लुढ़कते ही चले जाते हैं
इधर-उधर यह होते ही रहते सगे किसी के न होते हैं
रुख हवा का देखकर फिर यह अपनी चालें चलते हैं शर्म हया जमीर बेचकर कभी नहीं पछताते हैं
भोली भाली जनता को ये सब्जबाग दिखाते है
अपनी चिकनी चुपड़ी बातों से लोगों को बहलाते हैं
पंच वर्ष का बांध मंसूबा लोगों के घरों में जाते हैं हाथ जोड़ विनती करते और कितने स्वांग रचाते है
स्पर्श यदि उनका हो जाये तो घृणा से भर जाते है
बैठ आज उन्हीं के झोपढ़े मे उनकी रोटी खाते है
अंक लगाते उनके बच्चों को प्यार से उन्हें दुलारते है झूठे आश्वासन देते हो और लल्लो चप्पो करते हैं
वोटो की गिनती के लालच मे ये नराधम हो जाते है
धर्म का झण्डा हाथ में लेकर ये देश में सांप्रदायिक दंगेभड़काते है
सत्ता पर काबिज होते ही ये स्वयंभू बन जाते है
नए-नए कर कानून बनाकर कोष ये अपना भरते हैं
खून पसीना जनता बहाती ऐश यह नेता करते हैं
दो वक्त की रोटी के लिए जनता कितनी मशक्कत करती है
उनकी थाली के स्वाद को महंगाई लीले जाती है
इन नेताओं का हर दौरा विदेश यात्रा का होता है अपने देश के गांवों में इनका कभी पदार्पण नहीं होता है
इनके पैसों की भूख कभी खत्म नहीं हो पाती है देश का सौदा करने में भी इनकी आत्मा नहीं शर्माती है
बाशिंदे तो भारत के हैं पर महिमा दूसरे देश की करते हैं
स्वरचित उषा जैन कोलकाता
5. आज का जीवन
जीवन की इस आपाधापी में जाने क्या- पीछे छूट गया
कहीं ह्रदय के तार जुड़े तो कहीं पर ये दिल टूट गया
भागते दौड़ते लोगों में अपने पराए खो गए
कैसे ढूंढे उनमें अपनों को सब बेगाने हो गए
घुटन बढ़ रही शाम ओ सहर दिल अब कुंठित हो रहा
चहुं दिशाओं में स्वार्थ का जहर ही सर्वत्र फैल रहा
हाहाकार हो रहा ह्रदय में अतंस मन व्यथित हो रहा
परिवेश यहां का देख देख कर कर आसमान भी रो रहा
रोटी के दो टुकड़ों की खातिर मासूम बचपन सिसक रहा
पढ़ने लिखने की उमर मे काम के बोझ से दब रहा
क्या कोई मसीहा आसमान से इनके लिए भी आएगा
इनके नन्हे बचपन को इनका हक दिलवाएगा
नन्ही नन्ही कोमल कलियों को हवस का दानव कुचल रहा
भेड़ की खाल पहन के भेड़िया हर गांव शहर में घूम रहा
इन वहशी हत्यारों को कोई ऐसी सजा दिलाएगा
चौराहे पर सबके सामने सूली पर लटकायेगा
हश्र देखकर इनका ऐसा रूह कांप उठे औरों की
फिर से गूंजे गांव शहर में खिलखिलाहट बहन बेटियों की
फिर कोई रावण छू न पाए दामन कभी किसी सीता का का
फिर ना खिचनी पड़े किसी लक्ष्मण को फिर से कोई लक्ष्मण रेखा
स्वरचित उषा जैन
2 टिप्पणियां:
हार्दिक बधाइयां
हार्दिक बधाइयां
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