वज़न - 2122 2122 2122 2
ग़ज़ल
हुक्मरानों से हुई तकरार दफ़्तर में ।
सिरफिरी है आजकल सरकार दफ़्तर में ।
जब से आयी इक हसीं गुलनार दफ़्तर में ।
शाह ज़ादे हो गये बीमार दफ़्तर में ।
सल्तनत मेहरुननिशा की ज़द में है जब से,
नाम का ही है फ़कत सरदार दफ्तर में ।
कुछ नये पैदल वज़ीरी में लगे जब से,
बादशाहों की हुई तय हार दफ़्तर में ।
हाज़िरी है लाज़मी और नाम का है काम,
हो रहा है वक़्त यूँ बेकार दफ़्तर में ।
बतकही में हैं बड़े मशरूफ़ मुंशी जी,
फ़ाइलों का लग रहा अंबार दफ़्तर में ।
रोज़ चक्कर काटते कितने मुसद्दी से,
घूमते फिरते मिलें क़िरदार दफ़्तर में ।
मर गया भोला न उसको मिल सकी पेंशन,
अर्ज़ियाँ हैं वज़्न दिन बेकार दफ़्तर में ।
जाँच को आएँ जो अफ़सर तो निकम्मों के,
काम की फिर देखिए रफ़्तार दफ़्तर में ।
चापलूसी करके शातिर है मज़े में और,
माहिरों पर है तनी तलवार दफ़्तर में ।
रब की रहमत से रही है शान से अब तक,
'आरज़ू' की ऊँची ही दस्तार दफ़्तर में ।
-©️ अंजुमन 'आरज़ू'✍️
अदक़ लफ़्ज़ :-
ज़द = काबू
मेहरुननिशा= नूरजहां का नाम
मुंशी = लिपिक
भोला = हरिशंकर परसाई जी के व्यंग्य का एक पात्र
दस्तार = पगड़ी, प्रतिष्ठा
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