ग़ज़ल---
आज़र से अपने रहते हो तुम जो खफ़ा-खफ़ा
ऐसा न हो तराश ले वो बुत नया-नया
तूने उसी को तोड़ा ये क्या हो गया तुझे
जिस बतकदे में रहता था तू ही छिपा-छिपा
मैं जुस्तजू में उनकी जो पहुँचा चमन-चमन
गुंचे बुझे-बुझे से थे हर गुल लुटा-लुटा
सदियों किसी के ग़म में जले इस तरह से हम
जैसे हो इक दरख़्त सुलगता हरा-हरा
दिल में किसी सनम की मुहब्बत लिये हुए
काटी तमाम उम्र ही कहते ख़ुदा-ख़ुदा
हर शख़्स को है एक ही मंज़िल की जुस्तजू
वाइज़ बताये रास्ते फिर क्यों जुदा-जुदा
*साग़र* यक़ीं न करते नजूमी की बात पर
तक़दीर का लिखा जो न होता मिटा-मिटा
🖋विनय साग़र जायसवाल
आज़र-मूर्तिकार ,शिल्पी ,
संगतराश
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