ग़ज़ल
निगाहों से जो छुप छुप कर बराबर वार करते हैं
मुहब्बत से वो महफ़िल में सदा इन्कार करते हैं
हुस्ने-मतला--
कभी इज़हार करते हैं कभी इनकार करते हैं
हमारे साथ हरदम आप क्यों तकरार करते हैं
शरारत ख़ूब है उनमें अदा शोखी भी है क़ातिल
इन्हीं से वो हमारी ज़िन्दगी गुलज़ार करते हैं
मैं उनकी मिन्नतें कर कर के आखिर क्यों न इतराऊँ
भंवर से नाव मेरी वो हमेशा पार करते हैं
न पूछो क्या गुज़रती है दिल-ए-नादान पर उस दम
बजा पाज़ेब जब जज़्बात वो बेदार करते हैं
जो बख़्शी हैं हमें उसने सुनहरे पल की सौगातें
लगा कर हम गले उनको अभी तक प्यार करते हैं
ये ग़मगीं हैं मगर इनके ज़रा तुम हौसले देखो
जहां में रौनक़े साग़र यही फ़नकार करते हैं
🖋️विनय साग़र जायसवाल
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