डॉ. हरि नाथ मिश्र

 *संघर्ष*

पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है,

शैतान खा के ठोकर,इंसान बनता है।

करके मदद यतीमों की निःस्वार्थ भाव 

इंसान अपने मुल्क़ की पहचान बनता है।।

    होती हिना है सुर्ख़,पत्थर-प्रहार से,

    धीरज न खोवे सैनिक,सीमा की हार से।

    अपने वतन की माटी पर,प्राण कर निछावर-

    बलिदान की मिसाल वो, जवान बनता है।।

माता समान माटी, माटी समान माता,

परम पुनीत ऐसा संयोग रच विधाता।

जीवन में हर किसी को,मोकाम यह दिया है-

कर के नमन जिन्हें वो,महान बनता है।।

    लेना अगर सबाब, तुमको ख़ुदा का है,

    उजियार कर दो मार्ग जो,तम की घटा का है।

    भटके पथिक को रौशनी,दिखाते रहो सदा-

    करने वाला ऐसा ही निशान बनता है।।

वादा किसी को करके,मुकरना न चाहिए,

पद उच्च कोई पा के,बदलना न चाहिए।

धन-शक्ति के घमण्ड में,औक़ात जो भूला-


इंसान वो समझ लो,हैवान बनता है।।    महिमा कभी भी सिंधु की,घटते नहीं देखा,

    घमण्ड को समर्थ में,बढ़ते नहीं देखा।

   देखा नहीं सज्जन को कभी,कड़ुवे वचन कहते-

   नायाब इस ख़याल से ही,ईमान बनता है।।

जल पे लक़ीर खींचना, संभव नहीं यारों,

पश्चिम उगे ये भास्कर,संभव नहीं यारों।

आना अगर है रात को तो आ के रहेगी-

निश्चित प्रभात होने का,विधान बनता है।।

    ऐसे ही ज़िंदगी की गाड़ी को हाँकना,

    चलते रहो बराबर,पीछे न झाँकना।

    दीये की लौ समक्ष,तूफ़ान भी झुकता-

    तूफ़ान भी दीये का,क़द्रदान बनता है।।

पत्थर लुढ़क-लुढ़क के भगवान बनता है।।

                   ©डॉ. हरि नाथ मिश्र

                    9919446372

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अखिल विश्व काव्यरंगोली परिवार में आप का स्वागत है सीधे जुड़ने हेतु सम्पर्क करें 9919256950, 9450433511