ग़ज़ल
सर उठा कर जो सर-ए-राहगुज़र चलते हैं
ऐसे किरदार ज़माने को बहुत खलते हैं
हुस्ने -मतला-
हाथ में हाथ पकड़ कर यूँ चलो चलते हैं
ऐसे मौक़े भी कहाँ रोज़ हमें मिलते हैं
हमसे रौनक़ है हमेशा ही सनमख़ाने की
एक दीदार से वो गुल की तरह खिलते हैं
कैसे इज़हारे-मुहब्बत मैं भला कर पाऊँ
बात करने में सदा होंट मेरे सिलते हैं
रौशनी यूँ भी है महफ़िल में अदब की लोगो
दीप सारे ही लहू पी के यहाँ जलते हैं
जाम पीते हैं निगाहों से किसी की हम जो
मयकदे रोज़ नये हम पे यहाँ खुलते हैं
हुस्न की बज़्म में तुम पाँव संभल कर रखना
कितने दीवाने यहाँ हाथ सदा मलते हैं
मेरे मौला तू इन्हें यूँ हीं सलामत रखना
इन अमीरों से ग़रीबों के दिये जलते हैं
आपके एक तबस्सुम की बदौलत *साग़र*
मेरी आँखों में हसीं ख़्वाब कई पलते हैं
🖋️विनय साग़र जायसवाल
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