*षष्टम चरण*((श्रीरामचरितबखान)-33
जासु दूत हनुमान समाना।
सिव-बिरंचि सेवहिं सुर नाना।।
अस प्रभु राम न नर साधारन।
कीन्हा तासु बिरोध अकारन।।
नारद मोंहि तें कह इक बारा।
धरि नर-रूपहिं बिष्नु पधारा।।
अब मैं जाइ राम के पाहीं।
लेब दरस-सुख प्रभु रहँ जाहीं।।
नीलकमल इव सुंदर लोचन।
स्यामल बदन त्रितापु बिमोचन।।
देहु भ्रात अब तुम्ह अकवारा।
कोटिक मय-घट,महिष अपारा।।
लरि रन मरि तारब निज जीवन।
राम-कृपा नित मिलहिं अकिंचन।।
महिष खाइ करि मदिरा-पाना।
चला कुंभ जिमि गज बउराना।।
चलहि अकेलइ होंकड़त मग मा।
गरजन करत बज्र जनु छन मा।।
देखत ताहि बिभीषन आवा।
करि प्रनाम निज नाम बतावा।।
कुंभइकरन उठाइ बिभीषन।
कह तुम्ह भ्रात मोर कुलभूसन।।
बड़े भागि तुम्ह प्रभु-पद पायउ।
कारन कवन तु अबहिं बतावउ।।
सुनहु तात रावन इक बारा।
लात मारि के मोंहि निकारा।।
रहे सिखावत जब हम नीती।
कर न नाथ तुम्ह कोउ अनीती।।
जाउ देहु तुम्ह सिय रघुबीरा।
करिहैं कृपा नाथ रनधीरा।।
भवा कुपित सुनि बचन हमारो।
खींचि लात कसि मम उर मारो।।
दोहा-सुनहु बिभीषन रावनै,भवा काल बस मूढ़।
धन्य-धन्य तव जनम सुनु,राम-भगति आरूढ़।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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