डॉ0 हरिनाथ मिश्र

 एक प्रयास

         *रोटी*

करतीं हैं बाध्य सबको केवल ये रोटियाँ,

घर-बार छुड़ा देतीं केवल ये रोटियाँ।

उद्योग-काम-धंधा कुछ करने के लिए-

करतीं सदा मजबूर केवल ये रोटियाँ।।


घर-बार छोड़कर ही जाते विदेश हैं,

सीता-सुरेश-सरला, नितिन-दिनेश हैं।

खटते हैं रात-दिन बस,पेट की ख़ातिर-

अपना वतन छुड़ातीं, केवल ये रोटियाँ।।


 है जाता कोई चीन, कोई जापान को,

कोई गया ब्रिटेन तो कोई ईरान को।

हर देश-वासी की है पसंद अमेरिका-

करतीं अलग उन्हें ,केवल ये रोटियाँ।।


दुर्भाग्य से जब फैलती है कोई बीमारी,

कोहराम मचाती है,पुरजोर महामारी।

होता शुरू है तब,घनघोर पलायन-

जिसकी हैं जिम्मेदार केवल ये रोटियाँ।।


देंखें तो हर शहर-नगर व गाँव में,

है खेलती सियासत हर ठाँव-ठाँव  में।

आरोप-प्रत्यारोप का होता गज़ब ये दौर-

अंदर हैं सूत्रधार केवल ये रोटियाँ।।


जब भाग-दौड़ करके,है लौटता श्रमिक,

पथ पर भटक-भटक कर आ जाता है पथिक।

तो उसके ठंडे चूल्हों को,दे-दे के गर्मियाँ-

झुलसातीं निज बदन को केवल ये रोटियाँ।।


श्रम का सही सबूत होतीं हैं रोटियाँ,

इंसान का वजूद भी होतीं हैं रोटियाँ।

बेकार है ये जीवन यदि पास में न रोटी-

करतीं हैं धन्य जीवन, केवल ये रोटियाँ।।

              ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                  9919446372

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