डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *मधुरालय*

              *सुरभित आसव मधुरालय का*9

चलो चलें स्वागत हम कर लें,

इस मधुरालय का मन से।

इसकी तीनों जग में चर्चा-

चहुँ-दिशि गरिमा  छाई है।।

      लोक और परलोक-अधोतल,

      आसव -आसव -आसव है।

      हाला की तो बात न पूछो-

      अति विशिष्ट तरलाई है।।

करुणा और मित्रता जागे,

सदा कुभाव सुभाव बने।

मधुर स्वाद अति मन को भाए-

अनुपम नेह -लगाई है।।

        लगे नेह पर विरत वासना,

        शुभ स्वभाव देवत्व जगे।

         देव-पेय सम सबको भाए-

         जब-जब यह इठलाई है।।

पीओ किंतु रहो अनुशासित,

भोग-योग-संयोग  जगत।

जीवन जीना यही सिखाए-

जीओ,जग बिछुड़ाई  है।।

        ईश्वर-कृपा रहे सब जन पर,

        यह केवल तब ही संभव।

        जब सब जन समझें यह दुनिया-

         अपनी नहीं,पराई  है।।

अपन-पराया भेद भूलकर,

सब जन रहना यदि सीखें।

देन यही आसव की होगी-

जानो यही सचाई  है।।

      चलो,आज यह करें प्रतिज्ञा,

       साथ-साथ मिल कर्म करें।

       खाना-पीना,सोना-जगना-

        यही भाव समताई है।।

ऊँच-नीच है रोग विकट जग,

इसको कभी न शह देना।

छुआछूत रिश्तों का कैंसर-

इसने आग लगाई है।।

     बात बनाने से बनती है,

     बिगड़ी बात बना डालो।

     अभी नहीं कुछ देर हुई है-

     ऋतु स्नेहिल अब आई है।।

वायु-अग्नि-जल पक्ष में तेरे,

मौसम करे पुकार अभी।

काले बादल सुखद-सुहाने-

ऋतु ने ली अँगड़ाई है।।

      बीन बजाओ,ढोल बजाओ,

       सुर साधो शहनाई का।

       धीरे से मुरली की धुन ने-

       ऐसी बात बताई है।।

आदि काल से इस आसव ने,

डोर प्रेम की निर्मित की।

प्रेम-डोर से सतत बँधें हम-

इसमें जगत-भलाई है।।

      आसव है संकेत प्रेम का,

       दिव्य दृष्टि का सूचक भी।

      है कपाट अध्यात्म-बोध का-

      जीवन आस-जगाई है।।

                  © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                    9919446372





*मधुरालय*

              *सुरभित आसव मधुरालय का*10

छंद-ताल-सुर-लय को साधे,

भाव  भरे रुचिकर हिय  में।

वाणी का यह प्रबल प्रणेता-

सच्ची यह   कविताई  है।।

      लेखक-साधक-चिंतक जिसने,

      दिया  स्नेह  भरपूर  इसे।

      उसके गले उतर देवामृत-

      ने भी प्रीति निभाई  है।।

आसव-शक्ति-प्रदत्त लेखनी,

जब काग़ज़ पर चलती है।

चित्र-रेख अक्षुण्ण खींचती-

रहती जो अमिटाई है।।

      आसव है ये अमल-अनोखा,

       मन भावुक बहु करता है।

       मानव-मन को दे कवित्व यह-

       करता जन कुशलाई है।।

योग-क्षेम की धारा  बहती,

यदि प्रभुत्व इसका होता।

धन्य लेखनी,कविता धन्या,

जो रस-धार बहाई है।।

     मधुरालय के आसव जैसा,

     नहीं पेय जग तीनों में।

     मधुर स्वाद,विश्वास है इसका-

     जो इसकी प्रभुताई है।।

जब-जब अक्षर की देवी पर,

हुआ कुठाराघात प्रबल।

आसव रूपी प्रखर कलम ने-

माता-लाज बचाई  है।।

     अमिय पेय,यह आसव नेही,

     ओज-तेज-बल-बर्धक है।

      साहस और विवेक जगाता-

      होती नहीं हँसाई है।।

रचना धर्मी कलम साधते,

सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर।

दाँव-पेंच-मर्मज्ञ सियासी-

विजय सभी ने पाई है।।

     शिथिल तरंगों ने गति पाई,

     भरी उमंगें चाहत में।

     बन प्रहरी की इसने रक्षा-

     जब दुनिया अलसाई है।।

मन-मंदिर का यही पुजारी,

रखे स्वच्छ नित मंदिर को।

कलुषित सोच न पलने देता-

सेव्य-भाव बहुताई है।।

      आसव नहीं है मदिरा कोई,

       आसव सोच अनूठी है।

       सोच ही रक्षक,सोच विनाशक-

       सोच बिगाड़-बनाई है।।

                  ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                   9919446372

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