*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-35
कुंभकरन जानि तेहिं पकरा।
पुनि पद पकरि भूइँ पे पसरा।।
तब कपीस उठि तेहिं पुनि मारा।
जय-जय रामहिं बचन उचारा।।
प्रभुहिं निकट सभ जाइ बतावहिं।
जदपि कृपानिधान सभ जानहिं।।
कुंभकरन बिनु कान व नासा।
बहु क्रोधित अरु बिकल उदासा।।
भछन लगा कोटिन्ह कपि-भालू।
अजगर लीलै जथा सृगालू ।।
कोटिन्ह रपटि मीजि भुइँ फेंकहि।
कोटिक भागहिं जिनहिं चपेटहि।।
बहु-बहु निकसि कान-मुहँ-नासा।
भागहिं इत-उत होइ हतासा।।
भागहिं इधर-उधर कपि कंपित।
तितर-बितर सभ होंहि ससंकित।।
सुनहु बिभीषन-अंगद सबहीं।
करहु वही जइसन हम कहहीं।
कह बोलाइ सबहिं प्रभु रामा।
लखन-कपिस-हनुमत बलधामा।।
कपि-सेना तुम्ह सबहिं सम्हारो।
मिलहिं जे निसिचर तिनहिं पछारो।।
कुंभकरन हम मारब जाई।
करहु न चिंता तुम्ह सभ भाई।।
अस कहि राम धनुष सारंगा।
सायक सहित तुणीरहि संगा।।
करनइ जुद्ध चले रघुराई।
प्रभु कै कृपा बरनि नहिं जाई।।
सुनि टंकार सरंग क रिपु-दल।
इत-उत भागे करतै हलचल।।
सत-प्रतिग्य प्रभु कृपा-निधाना।
छाँड़े एक लाख तहँ बाना ।।
काल-ब्याल सपंख सर चलहीं।
रंड-मुंड कटि-कटि तहँ गिरहीं।।
घुमरि-घुमरि भय-मुर्छित सुभटा।
गिरहिं-उठहिं फिर चलहिं अटपटा।।
सत-सत खंडन्ह भव केहु-केहू।
भुइँ पे परा पसरि यहिं तेहू ।।
गरजन करत राम-सर बरसहिं।
घन प्रचंड जनु नभ तें गरजहिं।।
दोहा-प्रभु-सर तें कटि रंड बहु,भागहिं होइ बिमुंड।
काटि-काटि पुनि आवहीं, बान निषंग प्रचंड।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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