डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-35

कुंभकरन जानि तेहिं पकरा।

पुनि पद पकरि भूइँ पे पसरा।।

     तब कपीस उठि तेहिं पुनि मारा।

     जय-जय रामहिं बचन उचारा।।

प्रभुहिं निकट सभ जाइ बतावहिं।

जदपि कृपानिधान सभ जानहिं।।

     कुंभकरन बिनु कान व नासा।

      बहु क्रोधित अरु बिकल उदासा।।

भछन लगा कोटिन्ह कपि-भालू।

अजगर लीलै जथा सृगालू ।।

     कोटिन्ह रपटि मीजि भुइँ फेंकहि।

     कोटिक भागहिं जिनहिं चपेटहि।।

बहु-बहु निकसि कान-मुहँ-नासा।

भागहिं इत-उत होइ हतासा।।

     भागहिं इधर-उधर कपि कंपित।

      तितर-बितर सभ होंहि ससंकित।।

सुनहु बिभीषन-अंगद सबहीं।

करहु वही जइसन हम कहहीं।

     कह बोलाइ सबहिं प्रभु रामा।

     लखन-कपिस-हनुमत बलधामा।।

कपि-सेना तुम्ह सबहिं सम्हारो।

मिलहिं जे निसिचर तिनहिं पछारो।।

     कुंभकरन हम मारब जाई।

      करहु न चिंता तुम्ह सभ भाई।।

अस कहि राम धनुष सारंगा।

सायक सहित तुणीरहि संगा।।

      करनइ जुद्ध चले रघुराई।

      प्रभु कै कृपा बरनि नहिं जाई।।

सुनि टंकार सरंग क रिपु-दल।

इत-उत भागे करतै हलचल।।

      सत-प्रतिग्य प्रभु कृपा-निधाना।

       छाँड़े एक लाख तहँ बाना ।।

काल-ब्याल सपंख सर चलहीं।

रंड-मुंड कटि-कटि तहँ गिरहीं।।

      घुमरि-घुमरि भय-मुर्छित सुभटा।

       गिरहिं-उठहिं फिर चलहिं अटपटा।।

सत-सत खंडन्ह भव केहु-केहू।

भुइँ पे परा पसरि यहिं तेहू ।।

       गरजन करत राम-सर बरसहिं।

        घन प्रचंड जनु नभ तें गरजहिं।।

दोहा-प्रभु-सर तें कटि रंड बहु,भागहिं होइ बिमुंड।

         काटि-काटि पुनि आवहीं, बान निषंग प्रचंड।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

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