डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-42

सुभ अरु असुभ न सोचै रावन।

काम-लोभ-मद बिबस तासु मन।।

      महामत्त गज रावन-दल मा।

      गरजहिं जिमि कारे घन नभ मा।।

बिबिध प्रकार बाहन-रथ चलहीं।

भटहिं बिबिध माया मग करहीं।।

     लखि रावन-चतुरंगी सेना।

      कंपित-महि-गिरि-सागर-फेना।।

मारू राग बजावत चलहीं।

भट निज पौरुष चलत बखनहीं।।

     जब रावन बुलाइ अस कहहीं।

      मारउ जाइ रिपुन्ह जहँ रहहीं।।

हम मारब तापस दुइ भाई।

कउनउ बिधि हम सोचि उपाई।।

     मरकट-भालू काल समाना।

      उड़त चलहिं सपंख गिरि नाना।।

अस्त्रइ-सस्त्र तिन्हन्ह तरु-पर्बत।

नख अरु दंत जाइ नहिं बरनत।।

      निर्भय होंहिं चलहिं बलवंता।

       सुमिरत राम-नाम भगवंता।।

उन्मत गज रावन के हेतू।

रहँ केहरि प्रभु कृपा-निकेतू।

      दुइनिउ दल निज-निज अनुकूला।

      लागे लरन होइ प्रतिकूला।।

दोहा-आवत देखि निसाचरहिं, जस पिसाच अरु भूत।

         देत दुहाई राम कै, चले तुरत प्रभु-दूत ।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

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