*गीत*
द्वेष-कपट-छल-दंभ नहीं हो,
सबके मन में प्यार रहे।
रहे मधुरता वाणी में भी-
सम्यक शुद्ध विचार रहे।
गणित नहीं चलती रिश्तों में,
रिश्ते कोमल होते हैं।
बहुत सँभल कर इन्हें निभाते,
ये तो कोपल होते हैं।
निभते हैं ये त्याग भाव से-
सदा मधुर व्यवहार रहे।।
सम्यक शुद्ध विचार रहे।।
यह है मेरा,वह है तेरा,
ऐसी सोच प्रदूषित है।
परम संकुचित सोच यही है,
यही भावना कुत्सित है।
लूटें नहीं लुटाएँ अपना-
श्रेष्ठ भाव उपकार रहे।।
सम्यक शुद्ध विचार रहे।
सत्ता का अभिमान करें मत,
सत्ता आती-जाती है।
मन में रहे सदा विनम्रता,
बस यह अपनी थाती है।
आज मिली है कुर्सी तुमको-
कल दूजी सरकार रहे।।
सम्यक शुद्ध विचार रहे।।
प्रेम-भाव,सद्भाव सदा ही,
अपने प्यारे मीत रहे।
यही भाव आभूषण अपने,
जीवन के संगीत रहे।
इन्हें बचा कर रख लें सब जन-
भाव न अत्यचार रहे।।
रहे मधुरता वाणी में भी-
सम्यक शुद्ध विचार रहे।
द्वेष-कपट-छल-दंभ नहीं हो-
सबके मन में प्यार रहे।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
प्रेम*(चौपाइयाँ)
प्रेम सार जीवन का रहता।
जहाँ प्रेम है ईश्वर बसता ।।
प्रेम विवश सागर नभ जाता।
पूर्ण चंद्र को गले लगाता ।।
विष को कंठ उतारे शंकर।
प्रेम विवश होकर मयंकधर।।
कपट-विहीन प्रेम अति सुंदर।
निर्छल प्रेम सदा है शुभकर।।
सत्य प्रेम है बसता उसमें।
रहती नहीं वासना जिसमें।।
प्रेम नहीं तन की सुघराई।
शुचि हिय-मन से प्रेम मिताई।।
होता त्याग प्रेम-आभूषण।
स्वार्थ-भाव है प्रेम-प्रदूषण।।
प्रेम-भाव से जग मन-भावन।
बिना प्रेम जग जल बिन सावन।।
जहाँ प्रीति-एकता रहती।
सुख की कलियाँ वहीं महँकती।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
मधुरालय
*सुरभित आसव मधुरालय का*10
छंद-ताल-सुर-लय को साधे,
भाव भरे रुचिकर हिय में।
वाणी का यह प्रबल प्रणेता-
सच्ची यह कविताई है।।
लेखक-साधक-चिंतक जिसने,
दिया स्नेह भरपूर इसे।
उसके गले उतर देवामृत-
ने भी प्रीति निभाई है।।
आसव-शक्ति-प्रदत्त लेखनी,
जब काग़ज़ पर चलती है।
चित्र-रेख अक्षुण्ण खींचती-
रहती जो अमिटाई है।।
आसव है ये अमल-अनोखा,
मन भावुक बहु करता है।
मानव-मन को दे कवित्व यह-
करता जन कुशलाई है।।
योग-क्षेम की धारा बहती,
यदि प्रभुत्व इसका होता।
धन्य लेखनी,कविता धन्या,
जो रस-धार बहाई है।।
मधुरालय के आसव जैसा,
नहीं पेय जग तीनों में।
मधुर स्वाद,विश्वास है इसका-
जो इसकी प्रभुताई है।।
जब-जब अक्षर की देवी पर,
हुआ कुठाराघात प्रबल।
आसव रूपी प्रखर कलम ने-
माता-लाज बचाई है।।
अमिय पेय,यह आसव नेही,
ओज-तेज-बल-बर्धक है।
साहस और विवेक जगाता-
होती नहीं हँसाई है।।
रचना धर्मी कलम साधते,
सैनिक अस्त्र-शस्त्र लेकर।
दाँव-पेंच-मर्मज्ञ सियासी-
विजय सभी ने पाई है।।
शिथिल तरंगों ने गति पाई,
भरी उमंगें चाहत में।
बन प्रहरी की इसने रक्षा-
जब दुनिया अलसाई है।।
मन-मंदिर का यही पुजारी,
रखे स्वच्छ नित मंदिर को।
कलुषित सोच न पलने देता-
सेव्य-भाव बहुताई है।।
आसव नहीं है मदिरा कोई,
आसव सोच अनूठी है।
सोच ही रक्षक,सोच विनाशक-
सोच बिगाड़-बनाई है।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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