डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-48

रावन नाम मोर जग जानै।

बंदी मोरे लोकप मानै।।

     मारे तुम्ह खर-दूषन-तृषिरा।

    बाली-कुंभकरन रनधीरा।।

तुम्ह बिराध-घननादपि मारे।

निसिचर बहु-बहु सुभट पछारे।।

     आजु सकल हम करज उतारब।

       मारि तुमहिं निजु भागि सँवारब।।

तब हँसि कहे राम रघुनाथा।

कछुक करहु,मत गावहु गाथा।।

    नीति कहहि तुम्ह सुनउ पिसाचू।

     तीन प्रकार पुरुष बिधि राचू।।

पनस-गुलाब-रसाल समाना।

फरहिं-फुलहिं-फरफ़ूलहिं माना।।

      जल्पहिं एक करहिं अरु दूजा।

      कहहिं,करहिं जग जानै तीजा।।

राम-बचन सुनि हँसि कह रावन।

चला मोंहि कहँ ग्यान सिखावन।।

     कुलिस-कराल बान संधाना।

      चहुँ-दिसि छाए रावन-बाना।।

तब सर अनल राम संधाने।

जारि दीन्ह लंकेसहिं बाने।।

      अगनित चक्र-त्रिसूलहिं फेंका।

       तुरत राम काटहिं हर एका।।

निष्फल होय मनोरथ खल कै।

रावन-बान फिरहिं तस चलि कै।।

    झट रावन सत बान चलावा।

     राम-सारथी भुइँ पे आवा।।

गिरत भूइँ प्रभु राम पुकारा।

 उठाइ राम प्रभु ताहि सँवारा।।

दोहा-होंहि कुपित प्रभु राम तब,कीन्ह धनुष-टंकार।

         कंपित भे मंदोदरी,नभ-थल-जल-झंकार ।।

                       ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                           9919446372

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