ग़ज़ल--
हवा का ज़ोर इरादा डिगा नहीं सकता
चराग़े-इश्क़ हूँ कोई बुझा नहीं सकता
हुस्ने-मतला--
किसी के सामने सर को झुका नहीं सकता
वजूद अपना यक़ीनन मिटा नहीं सकता
फ़कत तुम्हारी ही मूरत समाई है दिल में
इसे मैं चीर के सीना दिखा नहीं सकता
किसी के प्यार से जान-ओ-जिगर महकते हैं
यक़ीन उसको ही लेकिन दिला नहीं सकता
वो इस जहान में रुसवा कहीं न हो जाये
किसी को दाग़ भी दिल के दिखा नहीं सकता
बसी हैं ख़ुशबुएं इनमें उसी की सांसों की
ख़तों को इसलिए भी मैं जला नहीं सकता
मुझे है आज भी चाहत तुम्हें मनाने की
सितारे तोड़ के हालाँकि ला नहीं सकता
जला के ख़ुद को ये नस्लों को रौशनी दी है
ज़माना लाख भुलाये भुला नहीं सकता
वो कर रहा है जफ़ा मुझसे बारहा *साग़र*
ये और बात है रिश्ता मिटा नहीं सकता
🖋️विनय साग़र जायसवाल
बरेली
2/11/2014
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