निशा अतुल्य

 भागमभाग भरी जिंदगी

20.1.2021


कहाँ जा रही हूं मैं 

अपने ही विचारों में उलझी

कर्तव्यों की डोर से बंधी

खुद को भूलती बिखराती

भागमभाग भरी जिंदगी ।


कुछे छूटे साथी 

कुछ बंधन नए

कुछ किये दर किनार

अपने से स्वयं ही ।

करती सामंजस्य सबसे

भागमभाग भरी जिंदगी ।


विचारों की तन्द्रा पर ताले

जब तक कुछ न सोचूं

तब तक भली

खोलूं जो पंख अपने

दूसरे के गले में अटकी

बन्द कर सभी दरवाजे 

मैं ख़ुद में भली

भागमभाग भरी जिंदगी ।


जी करता 

छोड़ चली जाऊं कहीं

जब तक मैं चाहूँ 

निभाते सब मुझे 

जब खोलूँ मुँह 

बात बेबात बढ़ी 

कैसी है भला ये जिंदगी

किसके लिए भली 

भागमभाग भरी जिंदगी ।


व्यवस्थित सयंमित

जिंदगी मेरी कब तक ?

जब तक मैं चुप तब तक

वरना बिखरी उजड़ी सी

दिखती हर पल 

कर्तव्यों के साथ बंधी जिंदगी

भागमभाग भरी जिंदगी ।


हाँ सब की जिंदगी है ये ही

माने या न माने 

सुनकर स्वीकार करना सच को

नही आसान है कोई

सादा सरल कुछ भी नहीं

हाँ बस ये ही है कहानी सबकी

भागमभाग भरी जिंदगी सबकी ।


स्वरचित

निशा"अतुल्य"

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