*जानती हूं*
जानती हूं नहीं आयेगा
अब कोई यहां
अनजान बनकर फिर भी
एक आस लिए
चली आती हूं
सूनी गलियां ,सूने चौपाल
है सूनी-सूनी सीढ़ियां
अनजानी आहट फिर भी
हर सीढ़ी से आती है
हवाओं में आज भी
तेरे कहकहे सुनाई देते हैं
कभी छूकर निकल
जाती हवा जो
तेरी शरारतन मेरी
जुल्फ बिखेरने की अदा
याद कराती है
जानती हूं अब यहां
नहीं कोई आयेगा
पर पंछियों की
चहचहाहट में दोस्तों की
मस्तियां महसूस करती हूं
वो उड़ना पंछियों का
इकदूजे के पीछे
याद आ जाता है
सहेलियों का धौल-धप्पा
ओ' बेवजह,बिनबात
उन्मुक्त हो खिलखिलाना
जानती हूं अब नहीं
यहां कोई आयेगा
फिर भी निहारती हूं
सूने पथ
जहां कांधो पर
अपने से ज्यादा
वजनदार बस्तों को
आसानी से उठाए
लकदक गणवेश* में
कदम दर कदम
भविष्य का डाक्टर,इंजी.,
नेता,अभिनेता नन्हा वर्तमान
बेखबर आपस में बतियाता
खट्टी-मीठी गोलियों सा
जात पात की बीमारी से
अछूता भविष्य की ओर
भागता आता दिखाई दे जाए
जानती हूं अब नहीं यहां
कोई आयेगा।
डा. नीलम
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