कविता - "किसान आन्दोलन"
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किसी तरह से हम किसानों को, नई पहचान तो दो ।
सर्द रात है आन्दोलित हैं, घर जाने की वजह तो दो।।
कितने लेख लिखे जा रहे,
हम पर अखबारों में रोज।
हम सड़क पर सो रहे हैं,
बच्चे रोये हैं हर रोज।
नहीं सहारा कोई है तो, पथ सुलभ कर दो।
सर्द रात है आन्दोलित हैं, घर जाने की वजह तो दो।।
अखबारों में खबर छापने को,
दौड़े हैं पत्रकार हर रोज।
उर के भावों को देखे बिन,
खबर छापे हैं हर रोज।
मसला हल नहीं हो सकता तो, बीच का पथ बनवा तो दो।
सर्द रात है आन्दोलित हैं, घर जाने की वजह तो दो।।
जानें कितने कवि रचना करके,
गीत सुनायें हर रोज ।
मेरे दु:ख को बांट - बांट के,
अपना सम्मान बढ़ायें रोज।
सम्मानों को छोड़ सभी जन, दारूण दु:ख कम करवा तो दो।
सर्द रात है आन्दोलित हैं, घर जाने की वजह तो दो।।
मेरे उगाये अन्न को,
सभी खाते हैं हर रोज।
राजनीति की चालों से,
हम सब घायल हैं हर रोज।
नहीं चाहिए सोना - चांदी, दो वक्त खाने तो दो।
सर्द रात है आन्दोलित हैं, घर जाने की वजह तो दो।।
पत्रकार, कवि, सोशल वालों
मूक समाज को नई दिशा दे दो।
नहीं चाहिए राज़ - पाट,
जिसे चाहिए उसको ही दे दो।
किसी तरह से हम किसानों को, नई पहचान तो दो ।
सर्द रात है आन्दोलित हैं, घर जाने की वजह तो दो।।
- दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
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