ग़ज़ल--
समझ रहा हूँ इश्क़ अब हुआ ये कामयाब है
मेरी नज़र के सामने जो मेरा माहताब है
हुस्ने मतला----
बशर बशर ये कह रहा वो हुस्ने -लाजवाब है
जो मेरा इंतिख़ाब है जो मेरा इंतिख़ाब है
ज़मीन आसमाँ लगे सभी हैं आज झूमने
तेरी निगाहे मस्त ने पिलाई क्या शराब है
तुझे तो मन की आँख से मैं देखता हूँ हर घड़ी
मेरी नज़र के सामने फ़िज़ूल यह हिजाब है
छुपा सकेगी किस तरह तू मुझसे अपने प्यार को
तेरी नज़र तो जानेमन खुली हुई किताब है
बढाऊँ कैसे बात को मैं उनसे अपने प्यार की
हज़ार ख़त के बाद भी मिला न इक जवाब है
तुम्हें क़सम है प्यार की चले भी आइये सनम
बिना तुम्हारे ज़िन्दगी तो लग रही अज़ाब है
🖋️विनय साग़र जायसवाल
2/1/2021
इंतिख़ाब -पसंद ,चयन
हिजाब--परदा ,लाज ,शर्म
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