ठंढ भी सुनती कहाँ
उफ़ ये कम्प लाती सर्द का,
अलग अलग मिजाज है ।
बेबस ग़रीबो के लिए तो,
बस सज़ा जैसा आज है ।
कुछ वाहहह वालों के लिए ,
तो मौज का आगाज है ।
कुछ के बदन कपड़े नही ,
कुछ के सिरों पर ताज है ।
ठंढ भी सुनती कहाँ कब,
लाचार की आवाज है ।
है खोजता कोई निवाले ,
चारों तरफ से आज है ।
गुनगुने मखमल में कोई ,
भोगता बस राज है ।
वही मौसम वही दुनिया ,
पर अलग ही अंदाज है ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
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