ग़ज़ल
कह रहे दिल की जुबानी एक स्वप्न रह गया।
देख दरिया का किनारा डूबने से रह गया।।
था हमें विश्वास जिस पर हार पहले वह गयी।
बस हमारे पास थी वह और स्वप्न धर गयी।।
मोतियों को अर्णव में ढूंढने निकले थे जब।
तेरे छलावे से तमन्नाओं का स्वप्न रह गया।।
नजदीक रहकर भी बनी हैं दूरियां तुझसे सनम।
तूं समर्पित है मुझी में ये स्वप्न सारा रह गया।।
बाकी हैं चंद लम्हें रूक तो जाओ तुम अभी।
ग़मों के फ़रात पार करने का स्वप्न रह गया।।
जिस्म लेकर साथ तूंने रूख किया बंधनों में।
बिसरा दिया दिल नूरानी और स्वप्न रह गया।।
तूंने मुखौटों में छुपाये भोली शक्लो सूरत यहां।
निशा ने खोल दी राज़ सारी और स्वप्न रह गया।
दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
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