*मन की पीड़ा*
मन की पीड़ा
देख कर राष्ट्र-छवि को बिलखते हुए,
मन में पीड़ा मेरे ऐसी होने लगी।
जैसे पंछी कोई पा जला आशियाँ -
छटपटा जा,जहाँ शाम होने लगी।।
कहीं हो के भष्मित भवन भहरें भर-भर,
कहीं जलते वाहन की आवाज़ें चर-चर।
कहीं पत्थरों से हो चोटिल कराहें -
सुन-सुन मयूरी फफक कर भी रोने लगी।।
ये देश-द्रोही गुनाहों के मरकज़,
निर्लज्ज-पापी कुलों के ये वंशज।
ज़रा भी नहीं इनमें शर्मो-हया है-
इन्हें पा अदब ख़ुद को खोने लगी।।
ये पावन धरा सरज़मीं जो है अपनी,
सदा से सदाशी, पवित्र हवि की अग्नी।
सँभल जाओ,सुन लो,सभी पत्थरबाजों-
युक्ति रक्षा की धरती सँजोने लगी।।
मान-सम्मान-गरिमा रहा फ़लसफ़ा,
इसके रक्षार्थ सोचा न नुकसान-नफ़ा।
बहुत हो चुका अब धरा बेहिचक-
बीज तुमको मिटाने की बोने लगी।।
साज़िशें करने वालों सुनो ध्यान से,
गर बग़ावत किया, जाओगे जान से।
धरती-अंबर तक मारेंगे चुन-चुन के हम-
हाथ गङ्गा में माता अब धोने लगी।।
जा के कह दो सभी अपने आक़ाओं से,
अब न छोड़ेंगे हम,कह दो काकाओं से।
शक्ति सहने की हममें, पर सीमा तलक-
ओज-सरिता धरा अब भिगोने लगी।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें