डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *मन की पीड़ा*

मन की पीड़ा 

देख कर राष्ट्र-छवि को बिलखते हुए,

मन में पीड़ा मेरे ऐसी होने लगी।

जैसे पंछी कोई पा जला आशियाँ -

छटपटा जा,जहाँ शाम होने लगी।।

     कहीं हो के भष्मित भवन भहरें भर-भर,

     कहीं जलते वाहन की आवाज़ें  चर-चर।

      कहीं पत्थरों से हो चोटिल  कराहें -

      सुन-सुन मयूरी फफक कर भी रोने  लगी।।

ये देश-द्रोही गुनाहों के मरकज़,

निर्लज्ज-पापी कुलों के ये वंशज।

ज़रा भी नहीं इनमें शर्मो-हया  है-

इन्हें पा अदब ख़ुद को खोने  लगी।।

      ये पावन धरा सरज़मीं जो है अपनी,

      सदा से सदाशी, पवित्र हवि की अग्नी।

      सँभल जाओ,सुन लो,सभी पत्थरबाजों-

       युक्ति रक्षा की धरती सँजोने  लगी।।

मान-सम्मान-गरिमा रहा फ़लसफ़ा,

इसके रक्षार्थ सोचा न नुकसान-नफ़ा।

बहुत हो चुका अब धरा  बेहिचक-

बीज तुमको मिटाने की बोने  लगी।।

     साज़िशें करने वालों सुनो ध्यान से,

     गर बग़ावत किया, जाओगे जान से।

     धरती-अंबर तक मारेंगे चुन-चुन के हम-

     हाथ गङ्गा में माता अब  धोने  लगी।।

जा के कह दो सभी अपने आक़ाओं से,

अब न छोड़ेंगे हम,कह दो काकाओं से।

शक्ति सहने की हममें, पर सीमा तलक-

ओज-सरिता धरा अब भिगोने  लगी।।

                 ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                  9919446372

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