माँ
*माँ*
देती है जन्म माँ ही,तुमको भी और हमको,
कर लो सफल ये जीवन,छू-छू के उस चरण को।।
सह-सह के लाख विपदा,माँ ने तुम्हे है पाला,
गीले में खुद को रख कर,पोषा है निज ललन को।।
त्रिदेव को सुलाया,पलने पे माँ की ममता,
सीता को माँ है माना,शत-शत नमन लखन को।।
माता विधायिका है,है रक्षिका व पालिका,
झुकता रहे ये मस्तक,उसके ही नित नमन को।।
निर्मित है होती संस्कृति,माँ के ही संस्कारों से,
उनपर करो ही अर्पण,नित प्रेम के सुमन को।।
माँ ही तो होती लक्ष्मी,दुर्गा-सरस्वती भी।
हो प्रेम-वारि अर्पित,जीवन के इस चमन को।।
चिंतन व धर्म-कर्म की,है केंद्र-बिंदु माँ ही,
होने न व्यर्थ देना,उस ज्ञान-कोष-धन को।
माता से श्रेष्ठ होता,कोई नहीं जगत में,
रखना सदा सुरक्षित,शिक्षा-प्रथम-सदन को।।
© डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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