*षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-61
देवराज कह हे रघुराई।
तुमहिं कृपालु, तुमहिं सुखदाई।।
हे रच्छक सरनागत स्वामी।
मारेउ रावन सठ-खल-कामी।।
आपुन भगति देहु रघुनाथा।
महिमा तव अकथ्य गुन-गाथा।।
चाहहुँ राउर मैं सेवकाई।
सीता-लखन सहित तुम्ह पाई।।
जनक-सुता अरु लखन समेता।
बसहु हृदय मम कृपा-निकेता।।
इंद्र-बचन सुनि कह रघुराई।
रिच्छहिं-कपिनहिं देउ जियाई।।
मरे सबहिं बस मोरे कारन।
धरम तोर अब इनहिं जियावन।।
इंद्र कीन्ह तब अमरित-बर्षा।
जीवित भे सभ कपि-दल हर्षा।।
जीवित भया न निसिचर कोऊ।
पाइ मुक्ति प्रभु-कृपा ते सोऊ।।
तेहि अवसर सिवसंकर आयो।
जोरि जुगल कर बिनय सुनायो।।
रच्छ माम तुम्ह रघुकुल-भूषन।
रावन हते, बधे खर-दूषन ।।
मोह-जलद-दल तुमहिं भगावत।
संसय-बन महँ आगि लगावत।।
हे धनु सारँग-सायक धारी।
भ्रम-तम प्रबल,क्रोध-मद हारी।।
बसहु आइ तुम्ह मोरे उर मा।
सीय-लखन-स्याम बपु यहि मा।।
गए संभु जब बिनती कइ के।
आए तुरत बिभीषन ठहि के।।
जोरि पानि बोले मृदु बानी।
अति दयालु प्रभु तुम्ह कल्यानी।
रावन सहित सकल कुल मार्यो।
निसिचर सहित सबन्ह कहँ तार्यो।।
मोंहि सिंहासन लंका दीन्हा।
परम कृपा प्रभु मों पे कीन्हा।।
चलहु नाथ अब भवन मँझारे।
संपति-भवनहिं सबहिं तुम्हारे।।
करि बिधिवत मज्जन-अस्नाना।
भोज करहु जे लगइ सुहाना ।।
राजकोष प्रभु तुम्हरै आहै।
देहु कपिन्ह जे जितना चाहै।
कोष तुम्हार जानु मैं पूरा।
सभ कछु जानूँ,नहीं अधूरा।।
दोहा-सुनहु बिभीषन मम बचन, कहहुँ बाति गंभीर।
पुनि-पुनि सुधि मों आवहीं, भरत भ्रात प्रन-धीर।।
"©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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