डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-63

सजल नयन जोरे निज पानी।

पुलकित तन नहिं निकसै बानी।।

     ठाढ़ि रहे सभ रामहिं सम्मुख।

     कहि न सकहिं कछु विह्वल तन-मुख।।

गाढ़ प्रेम लखि प्रभु सबही कै।

बैठारे बिमान गहि-गहि कै ।।

     उत्तर दिसि तब उड़ा बिमाना।

     करत कुलाहल जय-ध्वनि साना।।

बैठि बिमान राम-सिय सोहहिं।

गिरि सुमेरु घन दामिनि मोहहिं।।

     बरसा सुमन हरषि सुर करहीं।

      त्रिबिधि बयारि सुखद तब चलहीं।।

सुंदर सगुन होंहिं चहुँ-ओरा।

सिंधु-सरित-सर अमरित घोरा।।

     रन-भुइँ राम दिखावहिं सीतहिं।

     जहँ रहँ बधे लखन इन्द्रजीतहिं।।

अंगद-हनूमान जहँ लरऊ।

निसिचर-दल कै मर्दन करऊ।।

     तुरत दिखाए प्रभु भुइँ तहवाँ।

     रावन-कुंभकरन बध जहवाँ।।

थापे रहे जहाँ सिवसंकर।

बान्हि रहे जहँ सिंधु भयंकर।।

     जहँ-जहँ किए रहे बिश्रामा।

     सियहिं बताए उहवै धामा।

तुरत यान दंडक बन आवा।

कुम्भजादि सभ मुनिन्ह मिलावा।।

    लइ आसीष सकल मुनि जन कै।

     चित्रकूट पहुँचे लइ सबकै ।।

मिलि सभ मुनिनहिं उड़ा बिमाना।

तीरथराज प्रयाग सिधाना ।।

    गंग-जमुन-जल पावन सीता।

     कीन्ह प्रनाम त्रिबेनि पुनीता।।

दरस कीन्ह तब अवधपुरी कै।

तिरबिध ताप हरै जे सबकै।।

     तब प्रभु राम कहेउ हनुमाना।

     जावहु बटुक-रूप बलवाना।।

कुसल हमार बताइ भरत के।

आवहु समाचार सभ लइ के।।

      भरद्वाज पहँ तब प्रभु गयऊ।

       पूजा करि ऋषि-आसिष पयऊ।।

पुनि बिमान चढ़ि कीन्ह पयाना।

 नाथ-अवन निषाद जब जाना।।

     पहुँचि तहाँ कह नाव लेआऊ।

     सुरसरि पार गयउ रघुराऊ।।

प्रेमाकुल तब गुहा पधारा।

सजल नयन सिय-राम निहारा।।

दोहा-विह्वल हो प्रभु दरस तें, प्रभुहिं-सियहिं तहँ पाइ।

       बेसुध हो भुइँ गुह गिरा,प्रभु उर लीन्ह लगाइ ।।

       कृपानिधान-दयालु प्रभु,पूर्णकाम-सुखधाम।

       नृपन्ह सिरोमनि श्रीपती,निरबल के बल राम।।

        कलिजुग मा जे प्रभु भजै,होहि तासु कल्यान।

         राम सहारे भव तरै, पावै बहु सुख-खान।।

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