दिनांकः १३.०२.२०२१
दिवसः शनिवार
छन्दः मात्रिक
विधाः दोहा
विषयः वेदना
शीर्षक इठलाते लखि वेदना
इठलाते लखि वेदना , खल सम्वेदनहीन।
झूठ लूट धोखाधड़ी , धनी विहँसते दीन।।
लावारिस क्षुधार्त मन , देख फैलते हाथ।
आश हृदय कुछ मिल सके ,कोई बने तो नाथ।।
आज मरी लखि वेदना , दीन दलित अवसाद।
दया धर्म करुणा कहाँ , ख़ुद होते आबाद।।
मरी सभी इन्सानियत , मरा सभी ईमान।
हेर फेर कर लाश में , नहीं कोई पहचान।।
देह वसन आवास बिन , रैन बसेरा रात।
बंज़ारन की जिंदगी , शीत ताप बरसात।।
दरिंदगी चहुँओर अब , लूट रहे जग लाज।
कायरता निर्लज्जता , निर्वेदित समाज।।
आहत जन आतंक से , देश द्रोह अंगार।
मार काट दंगा करे , दया वेदना मार।।
फूट रहे निर्वेद स्वर , लोभ मोह मद स्वार्थ।
रिश्ते नाते सब मरे , भूले सब परमार्थ।।
मातु पिता गुरु श्रेष्ठ को , तजी आज सन्तान।
जिस माली पुष्पित चमन,दी उजाड़ मुस्कान।।
सीमा रक्षक जो वतन , देते निज बलिदान।
प्रश्नचिह्न उन शौर्य पर , उठा रहे नादान।।
नाम मात्र कलि वेदना,पा निकुंज मन पाद।
भूल सभी पुरुषार्थ को , तहस नहस बर्बाद।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक
नई दिल्ली
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