नूतन लाल साहू

 कारवां गुज़र गया


सजग नयन से तूने देखा

रवि का रथ पर चढ़कर आना

किन्तु कभी क्या तूने देखा

धीमी संध्या की गति को

कारवां गुज़र गया,पर

प्रकृति ने अपना नियम न बदला

याद आता है वह दिन, अब भी

जब तेरे मेरे,आंसू का मोल एक था

पल में ही परिवर्तित होकर

तेरे मेरे भाव अनेक हुआ

कारवां गुज़र गया,पर

नहीं समझ सका कि मांजरा क्या था

यदि तू ने आशा छोड़ी तो

समझो अपनी परिभाषा छोड़ी

एक चिड़िया अपनी चोंच में तिनका

लिए जा रहीं हैं

वह सहज भाव में ही

उंचास पवन को,नीचा दिखाती

कारवां गुज़र गया,पर

नहीं समझ सका,प्रभु की लीला को

नाश के दुख से कभी

दबता नहीं,निर्माण का सुख

अंधेरी रात में दीपक

जलाते कौन बैठा है

कारवां गुज़र गया, पर

नहीं समझ सका,काल की चाल को

अति क्रुद्ध मेघो की कड़क

अति क्षुब्ध विद्युत की तड़त

इन्द्र धनुष की छंटा

प्रलयंकारी मेघो पर

कारवां गुज़र गया, पर

नहीं समझ सका,ये कौतूहल को


नूतन लाल साहू

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