विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल ----


कैसे उत्तर दे पाते हम दानिस्ता तदबीर से 

निकले हैं मफहूम हज़ारों उसकी इक तहरीर से


शायद उसको रोक रहीं हैं रस्मे-वफ़ा की ज़ंजीरें 

रो रो कर लिपटा जाता है वो मेरी तस्वीर से


प्यार मुहब्बत की यह दुनिया हर कोशिश आबाद रहे 

सारी ख़ुशियाँ वाबस्ता हैं इस दिल की जागीर से


कहने को तो सारी दूरी तय कर लेते हम यारो

बाँध दिये हैं पाँव किसी ने क़समों की ज़ंजीर से


ऐ दुनिया कुछ ख़ौफ नहीं है इन ऊँची दीवारों का 

हिम्मत वाले कब डरते हैं ख़्वाबों की ताबीर से


आँखों से आँसू बहते हैं दामन भीगा भीगा है 

कैसे दिल का हाल सुनायें हम उनको तफ़सीर से


शायद हम भी बिक ही जाते इन दिलकश बाज़ारों में

चलती रही है जंग हमारी सारी उम्र ज़मीर से


किस किस का अफ़सोस करें कैसे दिल के ज़ख़्म भरें

कर देता है वार कई वो ज़ालिम इक इक तीर से


हार गये हम एक नशेमन की तामीर में  ही *साग़र* 

बनते हैं यह  महलों से घर शायद सब तक़दीर से


🖋 *विनय साग़र जायसवाल*

दानिस्ता तदबीर -सोच कर निकाली हुई युक्ति

वाबस्ता-जुड़ी हुई 

ख़्वाबों की ताबीर-सपनों का फल 

नशेमन-घोंसला , घर ,नीड़

तफ़सीर-विस्तार ,व्याख्या सहित

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