*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-44
कहे तुरत सिवसंकर दानी।
तुमहिं न जनम-मरन-दुख हानी।।
मानउ सत्य मोर अस बानी।
मिटै न तोर ग्यान खगप्रानी।।
पहिला जनम अवधपुर तुम्हरो।
पायो राम-भगति तुम्ह सगरो।।
द्विज-अपमान व संत-निरादर।
यहि मा नहिं भगवान-समादर।।
जे बिबेक अस मन मा रखही।
नहिं कछु जग मा दुर्लभ रहही।।
अस मुनि-बचन हरषि गुरु तहऊ।
एवमस्तु कह निज गृह गयऊ ।।
प्रेरित काल बिन्ध्य-गिरि जाई।
रहेउँ भुजंग जोनि सुनु भाई।।
तब तें जे तन मैं जग धरऊँ।
बिनु प्रयास तजि नव तन गहऊँ।।
जे-जे तन धरि मैं जग आऊँ।
राम-भजन नहिं कबहुँ भुलाऊँ।।
बिसरै नहिं मोहिं गुरू-सुभावा।
कोमल-मृदुल नेह जे पावा ।।
द्विज कै जनम अंत मैं पाई।
लीला लखे बाल रघुराई।।
प्रौढ़ भए पठनहिं नहिं भावा।
जदपि पिता बहु चहे पढ़ावा।।
राम-कमलपद रह अनुरागा।
नहिं कछु औरउ मम मन लागा।।
कहु खगेस अस कवन अभागा।
कामधेनु तजि गर्दभि माँगा ।।
इषना त्रिबिध नहीं मन मोरे।
संपति-पुत्र-मान जे झोरे ।।
सतत लालसा रह मन माहीं।
कइसउँ दरस राम कै पाहीं।।
गिरि सुमेरु तब बट-तरु-छाया।
मुनि लोमस आसीनहिं पाया।।
तातें सुने ब्रह्म-उपदेसा।
अज-अनाम प्रभु अछत खगेसा।
निरगुन रूप ब्रह्म नहिं भावा।
ब्रह्म समग्र सगुन मैं पावा ।।
राम-भगति-गति जल की नाई।
मम मन-मीन रहहि सुख पाई।।
दोहा-सगुन रूप मैं राम कै, निरखन चाहुँ मुनीस।
करु उपाय कछु अस मुनी,देखि सकहुँ प्रभु ईस।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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