डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-44

कहे तुरत सिवसंकर दानी।

तुमहिं न जनम-मरन-दुख हानी।।

     मानउ सत्य मोर अस बानी।

     मिटै न तोर ग्यान खगप्रानी।।

पहिला जनम अवधपुर तुम्हरो।

पायो राम-भगति तुम्ह सगरो।।

     द्विज-अपमान व संत-निरादर।

     यहि मा नहिं भगवान-समादर।।

जे बिबेक अस मन मा रखही।

नहिं कछु जग मा दुर्लभ रहही।।

      अस मुनि-बचन हरषि गुरु तहऊ।

      एवमस्तु कह निज गृह गयऊ ।।

प्रेरित काल बिन्ध्य-गिरि जाई।

रहेउँ भुजंग जोनि सुनु भाई।।

      तब तें जे तन मैं जग धरऊँ।

      बिनु प्रयास तजि नव तन गहऊँ।।

जे-जे तन धरि मैं जग आऊँ।

राम-भजन नहिं कबहुँ भुलाऊँ।।

       बिसरै नहिं मोहिं गुरू-सुभावा।

       कोमल-मृदुल नेह जे पावा ।।

द्विज कै जनम अंत मैं पाई।

लीला लखे बाल रघुराई।।

     प्रौढ़ भए पठनहिं नहिं भावा।

     जदपि पिता बहु चहे पढ़ावा।।

राम-कमलपद रह अनुरागा।

नहिं कछु औरउ मम मन लागा।।

      कहु खगेस अस कवन अभागा।

       कामधेनु तजि गर्दभि माँगा ।।

इषना त्रिबिध नहीं मन मोरे।

संपति-पुत्र-मान जे झोरे ।।

     सतत लालसा रह मन माहीं।

     कइसउँ दरस राम कै पाहीं।।

गिरि सुमेरु तब बट-तरु-छाया।

मुनि लोमस आसीनहिं पाया।।

     तातें सुने ब्रह्म-उपदेसा।

     अज-अनाम प्रभु अछत खगेसा।

निरगुन रूप ब्रह्म नहिं भावा।

ब्रह्म समग्र सगुन मैं पावा ।।

     राम-भगति-गति जल की नाई।

      मम मन-मीन रहहि सुख पाई।।

दोहा-सगुन रूप मैं राम कै, निरखन चाहुँ मुनीस।

        करु उपाय कछु अस मुनी,देखि सकहुँ प्रभु ईस।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

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