*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-41
छोट बसन कलिजुग-तन-सोभा।
लघु पट सजि न नारि-मन छोभा।।
नारी-पुरुष काम-रति भोगा।
पति-पत्नी बिरलै संजोगा।।
परदारा-रति-भोग-बिलासा।
रत जे नर सभकर बिस्वासा।।
झपसट-लंपट-भ्रष्ट-आवारा।
कलिजुग महँ पूजै संसारा।।
अपठ-गवाँर-अबोधा पंडित।
दुर्जन मंडित,सज्जन दंडित।।
कलिजुग कै सभ उलटय धारा।
जितै असत्य सत्य जग हारा।
पसुवत रहै आचरन जन-जन।
संकर बरन बढ़हिं जग छन-छन।।
मसलहिं कली बिनू कुसुमाई।
ब्यभिचारी गति बरनि न जाई।।
हतै पती कुलवंती नारी।
पर त्रिय प्रेम करै ब्यभिचारी।।
मातु-पिता-गुरु-गरिमा घटही।
प्रेम-नेह ससुरारिहिं बढ़ही।।
बहु अकाल जन भूखन्ह मरहीं।
कबहुँ-कबहुँ बहु बृष्टिहिं भवहीं।।
भाई भगिनिहिं नहिं पहिचानी।
रीति-नीति अरु प्रीति न मानी।।
कटुक बचन-इरिषा अरु लालच।
उर महँ कलिजुग भरा खचाखच।।
पर निंदक,पर स्त्री-भोगी।
पर तन-सोषक कलिजुग-जोगी।।
जे गति जप-तप पूजा मिलही।
सतजुग-द्वापर-त्रेता जुगही।।
सो गति कलिजुग अपि जन मिलहीं।
जौं हरि-नाम निरंतर जपहीं ।।
दोहा-कलिजुग जुग जग अस अहहि,जेहि मा हरि कै नाम।
भजत तरै भव-सिन्धुहीं,बिनु जप-तप-गुन-ग्राम ।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-40
कारन कवन बता गुरु नाथा।
पूछा गरुड़ नवा निज माथा।।
नासहि काल सकल जग-जीवा।
नागहिं-मनुज,चराचर-देवा।।
पर तुम्ह काल-गाल नहिं आवहु।
जानि दास निज मोंहि बतावहु।।
सरल-सुसील-सनेह सुभावा।
नहिं तुम्ह महँ प्रभु-प्रेम अभावा।।
कारन कवन काग-तन पायो।
प्रलयहुँ नास न सिवा बतायो।।
मिथ्या बचन न सिव कै होवै।
अह कस संसय मोहें सोवै।।
गरुड़-बचन सुनि बिहँसा कागा।
कह तुम्ह धन्य खगेस सुभागा।।
बहु-बहु जनम मोंहि सुधि आई।
सुनहु गरुड़ तुम्ह मन-चित लाई।।
जप-तप,जगि-दम-दान-बिरागा।
ब्रतहिं-बिबेक,जोग-फल-भागा।।
मिलहिं न बिनु प्रभु-पद-अनुरागा।
स्वारथ बिनु चित प्रभू न लागा।।
नीच प्रेम सज्जन सँग करही।
नीति कहै जब स्वारथ रहही।।
सुंदर-रुचिर पटम्बर ताईं।
सेवहिं कीटहिं प्रान की नाईं।।
ऊँच-नीच तन एक समाना।
जे पूजै अह-निसि भगवाना।।
राम-भजन तन-भेद न जानै।
खग-पसु-नर बिच भेद न मानै।।
नर-तन पाइ क भजन न होवै।
ते जन राम-चरन-सुख खोवै।
प्रथम जनम जब मम जग भयऊ।
कलिजुग घोर अवनि पे रहऊ।।
अवधपुरी महँ मोर निवासा।
सुद्र-जाति पर,सिव-बिस्वासा।
अपर देव-निंदक-अभिमानी।
मैं नित करत रहेउँ मनमानी।
महिमा राम न जानत रहऊँ।
जदपि अवधपुरी महँ भयऊँ।।
जावद उर नहिं प्रभु-अनुरागा।
तावद भगति न चित कोउ लागा।।
परम कठिन कलि-काल कराला।
कपटी-कुटिल-पिचालिन्ह पाला।।
नीति व रीति-धरम कै हानी।
कामी-क्रोधी जन अभिमानी।।
बेद-बिबाद,सुग्रंथन-लोपा।
प्रेमाभावहिं सबहिं सकोपा।।
संत-असंत-बिभेद न कोऊ।
गाल बजाय जे संतइ होऊ।।
अनाचार करि जन आचारी।
साँचा जे पर-संपति हारी।।
मिथ्या भखि जे करै मसखरी।
बड़ गुणवंत कहाय नर-हरी।।
श्रुति-पथ त्यागि निसाचर नाई।
कलिजुग बड़ ग्यानी कहलाई।।
दोहा-खान-पान-अग्यान नर,भच्छ-अभच्छ न बिचार।
भूषन-बसन न सुचि पहिर,कलिजुग बस ब्यभिचार।।
डॉ
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें