डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-41

छोट बसन कलिजुग-तन-सोभा।

लघु पट सजि न नारि-मन छोभा।।

     नारी-पुरुष काम-रति भोगा।

      पति-पत्नी बिरलै संजोगा।।

परदारा-रति-भोग-बिलासा।

रत जे नर सभकर बिस्वासा।।

      झपसट-लंपट-भ्रष्ट-आवारा।

      कलिजुग महँ पूजै संसारा।।

अपठ-गवाँर-अबोधा पंडित।

दुर्जन मंडित,सज्जन दंडित।।

     कलिजुग कै सभ उलटय धारा।

     जितै असत्य सत्य जग हारा।

पसुवत रहै आचरन जन-जन।

संकर बरन बढ़हिं जग छन-छन।।

      मसलहिं कली बिनू कुसुमाई।

       ब्यभिचारी गति बरनि न जाई।।

हतै पती कुलवंती नारी।

पर त्रिय प्रेम करै ब्यभिचारी।।

      मातु-पिता-गुरु-गरिमा घटही।

      प्रेम-नेह ससुरारिहिं बढ़ही।।

बहु अकाल जन भूखन्ह मरहीं।

कबहुँ-कबहुँ बहु बृष्टिहिं भवहीं।।

     भाई भगिनिहिं नहिं पहिचानी।

     रीति-नीति अरु प्रीति न मानी।।

कटुक बचन-इरिषा अरु लालच।

उर महँ कलिजुग भरा खचाखच।।

    पर निंदक,पर स्त्री-भोगी।

     पर तन-सोषक कलिजुग-जोगी।।

जे गति जप-तप पूजा मिलही।

सतजुग-द्वापर-त्रेता  जुगही।।

   सो गति कलिजुग अपि जन मिलहीं।

    जौं हरि-नाम निरंतर जपहीं ।।

दोहा-कलिजुग जुग जग अस अहहि,जेहि मा हरि कै नाम।

        भजत तरै भव-सिन्धुहीं,बिनु जप-तप-गुन-ग्राम ।।

                        ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372


*सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-40

कारन कवन बता गुरु नाथा।

पूछा गरुड़ नवा निज माथा।।

     नासहि काल सकल जग-जीवा।

     नागहिं-मनुज,चराचर-देवा।।

पर तुम्ह काल-गाल नहिं आवहु।

जानि दास निज मोंहि बतावहु।।

     सरल-सुसील-सनेह सुभावा।

      नहिं तुम्ह महँ प्रभु-प्रेम अभावा।।

कारन कवन काग-तन पायो।

प्रलयहुँ नास न सिवा बतायो।।

     मिथ्या बचन न सिव कै होवै।

     अह कस संसय मोहें सोवै।।

गरुड़-बचन सुनि बिहँसा कागा।

कह तुम्ह धन्य खगेस सुभागा।।

     बहु-बहु जनम मोंहि सुधि आई।

     सुनहु गरुड़ तुम्ह मन-चित लाई।।

जप-तप,जगि-दम-दान-बिरागा।

ब्रतहिं-बिबेक,जोग-फल-भागा।।

     मिलहिं न बिनु प्रभु-पद-अनुरागा।

      स्वारथ बिनु चित प्रभू न लागा।।

नीच प्रेम सज्जन सँग करही।

नीति कहै जब स्वारथ रहही।।

     सुंदर-रुचिर पटम्बर ताईं।

      सेवहिं कीटहिं प्रान की नाईं।।

ऊँच-नीच तन एक समाना।

जे पूजै अह-निसि भगवाना।।

      राम-भजन तन-भेद न जानै।

      खग-पसु-नर बिच भेद न मानै।।

नर-तन पाइ क भजन न होवै।

ते जन राम-चरन-सुख खोवै।

    प्रथम जनम जब मम जग भयऊ।

     कलिजुग घोर अवनि पे रहऊ।।

अवधपुरी महँ मोर निवासा।

सुद्र-जाति पर,सिव-बिस्वासा।

      अपर देव-निंदक-अभिमानी।

      मैं नित करत रहेउँ मनमानी।

महिमा राम न जानत रहऊँ।

जदपि अवधपुरी महँ भयऊँ।।

     जावद उर नहिं प्रभु-अनुरागा।

      तावद भगति न चित कोउ लागा।।

परम कठिन कलि-काल कराला।

कपटी-कुटिल-पिचालिन्ह पाला।।

    नीति व रीति-धरम कै हानी।

     कामी-क्रोधी जन अभिमानी।।

बेद-बिबाद,सुग्रंथन-लोपा।

प्रेमाभावहिं सबहिं सकोपा।।

     संत-असंत-बिभेद न कोऊ।

     गाल बजाय जे संतइ होऊ।।

अनाचार करि जन आचारी।

साँचा जे पर-संपति हारी।।

     मिथ्या भखि जे करै मसखरी।

     बड़ गुणवंत कहाय नर-हरी।।

श्रुति-पथ त्यागि निसाचर नाई।

कलिजुग बड़ ग्यानी कहलाई।।

दोहा-खान-पान-अग्यान नर,भच्छ-अभच्छ न बिचार।

        भूषन-बसन न सुचि पहिर,कलिजुग बस ब्यभिचार।।

                       डॉ

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