डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *गीत*(16/16)

किसके सँग मैं खेलूँ होली,

साजन अभी न लौटे घर को।

व्यथा कहूँ मैं किससे हिय की-

पिया गए अनजान शहर को??


खुशियों का है उत्सव होली,

सभी मिटा दें दिल की दूरी।

गले लगाकर प्रेम-भाव से,

कर लें इच्छा मन की पूरी।

प्रेम-रंग होली का देखो-

रँगता दिखता गाँव-नगर को।।

       पिया गए अनजान शहर को।।


अमराई में बैठ कोकिला,

मधुर मिलन का गीत सुनाए।

वन-उपवन की मधु सुगंध में,

लगे,प्रकृति-परिवेश नहाए।

सुनकर पपिहा की पिव बोली-

सतत निहारूँ पिया-डगर को।।

       पिया गए अनजान शहर को।।


सखियाँ अपने प्रियतम के सँग,

होली-रंग-गुलाल खेलतीं।

भीगी चुनरी,मुदित मना सब,

होली का हुड़दंग झेलतीं।

देख मचलता मन भी मेरा-

छू लूँ मैं भी पिया-अधर को।।

       पिया गए अनजान शहर को।।


मिले अगर साजन होते तो,

उनसे हँसी-ठिठोली करती।

बाहों का मैं हार बनाकर,

उनकी बाहों में भी रहती।

नहीं हाथ से जाने देती-

होली के इस शुभ अवसर को।।

  पिया गए अनजान शहर को।।

 किसके सँग मैं खेलूँ होली,

साजन अभी न लौटे घर को।।

         ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

             9919446372

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