*गीत*(16/16)
किसके सँग मैं खेलूँ होली,
साजन अभी न लौटे घर को।
व्यथा कहूँ मैं किससे हिय की-
पिया गए अनजान शहर को??
खुशियों का है उत्सव होली,
सभी मिटा दें दिल की दूरी।
गले लगाकर प्रेम-भाव से,
कर लें इच्छा मन की पूरी।
प्रेम-रंग होली का देखो-
रँगता दिखता गाँव-नगर को।।
पिया गए अनजान शहर को।।
अमराई में बैठ कोकिला,
मधुर मिलन का गीत सुनाए।
वन-उपवन की मधु सुगंध में,
लगे,प्रकृति-परिवेश नहाए।
सुनकर पपिहा की पिव बोली-
सतत निहारूँ पिया-डगर को।।
पिया गए अनजान शहर को।।
सखियाँ अपने प्रियतम के सँग,
होली-रंग-गुलाल खेलतीं।
भीगी चुनरी,मुदित मना सब,
होली का हुड़दंग झेलतीं।
देख मचलता मन भी मेरा-
छू लूँ मैं भी पिया-अधर को।।
पिया गए अनजान शहर को।।
मिले अगर साजन होते तो,
उनसे हँसी-ठिठोली करती।
बाहों का मैं हार बनाकर,
उनकी बाहों में भी रहती।
नहीं हाथ से जाने देती-
होली के इस शुभ अवसर को।।
पिया गए अनजान शहर को।।
किसके सँग मैं खेलूँ होली,
साजन अभी न लौटे घर को।।
©डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372
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