डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *सप्तम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-37

माँगु भसुंडि आजु बर कोऊ।

मन भाए जे बोलउ सोऊ ।।

    तत्व ग्यान-बैराग-बिबेका।

    मुनि दुर्लभ जे ग्यान अनेका।।

रिद्ध व सिद्धि सकल सुख-खानी।

मोच्छ समेत तुमहिं जे जानी ।।

     बिनु संदेह तुमहिं मैं देऊँ।

     भव-भय सकल तुरत हरि लेऊँ।।

सुनि प्रभु-बचन बिचारे हमहीं।

धन-सम्पत्तिहिं सुख नहिं मिलहीं।।

     राम क भगति सकल सुख-धामा।

     मिलै न सुख बिनु भक्तिहिं रामा।।

जल बिनु मीन,भगति बिनु सेवक।

छटपटाहिं बिनु नावहिं खेवक ।।

     अबिरल भगतिहिं सुर-मुनि चाहहिं।

      बिमल बिसुद्ध पुरान-श्रुति गावहिं।।

कलप-तरू-कृपालु भगवाना।

दीजै मोहिं सोइ अग्याना ।।

     एवमस्तु कह राम कृपाला।

     दीन्ह भगति तब दीन दयाला।।

तुम्ह बड़ भागी, मम अनुरागी।

अबिरल भगति कै तुमहीं भागी।।

     तव उर रहहि सकल गुन बासा।

      पायो मम प्रसाद बिस्वासा ।।

भक्ति-बिराग,ग्यान-बिग्याना।

मम रहस्य व लीलहिं जाना।।

    बिनु प्रयास तुम्ह जाने सबहीं।

    देबहुँ अस बर अब मैं तुमहीं।।

माया-भ्रम नहिं ब्यापै तोहीं।

करत रहहु अनुरागहिं मोहीं।।

   अब तुम्ह सुनहु बचन मम कागा।

   जानउ मम सिद्धांत सुभागा।।

अखिल जगत मम माया रचना।

जीव-चराचर जे इहँ बसना ।।

     सकल जगत सँग हमरो नेहा।

     सबतें अधिकहिं मनुज सनेहा।।

द्विज श्रुति-धारी,धरम-बिचारी।

रखहुँ सनेह तिनहिं सँग भारी।।

     पुनि ग्यानी-बिरक्त-बिग्यानी।

      तिन्हकर नेह-बोल अरु बानी।

प्रिय तें प्रियतर लगहिं मोहीं।

इन्हतें प्रियतर सेवक तोहीं।।

दोहा-भगति-बिहीन बिरंचि प्रिय,प्रिय सभ जीव समान।

         भगतिवंत बरु नीच अपि,लागहिं प्रिय सम प्रान।।

                       डॉ0हरि नाथ मिश्र

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