ग़ज़ल-
जब कभी ज़ीस्त पर कोई बार आ गया
नाम लेते ही उनका क़रार आ गया
आप खोये हुए हैं कहाँ देखिये
आप के दर पे इक बेक़रार आ गया
बहरे-ताज़ीम पैमाने उठने लगे
मयकदे में कोई मयगुसार आ गया
आपके ख़ैरमक़्दम के ही वास्ते
देखिये मौसम-ए-पुरबहार आ गया
आप क़समें न खायें हमारी क़सम
छोड़िए छोड़िए ऐतबार आ गया
जब अचानक कहीं कोई आहट हुई
यूँ लगा हासिल-ए-इंतज़ार आ गया
दो क़दम जब भी मंज़िल की जानिब चला
उड़ के आँखों में *साग़र* ग़ुबार आ गया
🖋️विनय साग़र जायसवाल
ज़ीस्त-
बार-बोझ ,भार
बहरे-ताज़ीम-स्वागत हेतु
मयगुसार-रिंद ,मयकश ,शराबी
ख़ैरमक़्दम-स्वागत ,
पुरबहार -बहारमय ,बहारो से भरपूर
ग़ुबार-धूलकण
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें