ग़ज़ल
ग़ज़ल को इस हुनरमंदी से हम अल्फाज़ देते हैं
परिंदे जिस तरह से पंख को परवाज़ देते हैं
छुपाओगे कहाँ तक तुम मुहब्बत के सबूतों को
ये आँखें और चेहरे खोल दिल का राज़ देते हैं
हमारी ख़ासियत को जानता सारा ज़माना है
जिसे छू लें बना उसको ही हम मुमताज़ देते हैं
मुहब्बत में कशिश यह सब तुम्हारी ही बदौलत है
तुम्हारे नाज़ ही इसको नया अंदाज़ देते हैं
हमारे लम्स से उस जिस्म में बजती है यूँ सरगम
कि जैसे मीर की ग़ज़लों को मुतरिब साज़ देते हैं
हमारी ख़्वाहिशें भी क़ैद कर लीं उसने कुछ ऐसे
परों को बाँध जैसे कुछ कबूतरबाज़ देते हैं
हवेली दिल की इस खातिर ही बस आबाद है *सागर*
वो लम्हें दौरे-माज़ी के मुझे आवाज़ देते हैं
🖋 विनय साग़र जायसवाल
लम्स-स्पर्श
मुतरिब-गायक
मुमताज़-विशिष्ट ,ख़ास
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