सुषमा दीक्षित शुक्ला

 आठ मुक्तक पच्चीस मुहावरे


रिश्वतखोरों की मत पूछों ,

ऐसी बाट लगाते हैं ।

मोटी मोटी रकमें लेकर ,

सिर अपना खुजलाते हैं ।

नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली ,

हज को जाती हो जैसे ।

आदर्शों का भाषण देकर ,

बकरा खूब बनाते हैं ।


जिसकी लाठी भैंस उसी की ,

बचपन से सुन आयी ।

बाहुबली से डरते हैं सब ,

कहते भाई  भाई ।

काला आखर भैंस बराबर ,

भले न वो कुछ जाने ।

फिर भी उसके सारे अवगुण ,

की होवे भरपाई ।


धोबी के कुत्ते बन जाते ,

अपनों को छलने वाले ।

तिरस्कार का दण्ड भुगतते ,

खुद को ही ठगने वाले ।

अपनों के जो हो न सके हैं,

वो क्या जाने वफ़ा यहाँ ।

अंधकार में घिरते इक दिन ,

वो ढोंगी मन के काले ।


दिल वालों की दिल्ली है,

ये बात सुनी थी यारों ।

रहते यहाँ बिलों में देखो ,

काले  नाग   हजारों।

आस्तीन के सांप हैं ये सब ,

कब डस लें ये खबर नहीं ।

स्वयं बचो अरु देश बचाओ ,

ढूँढ ढूँढ कर मारो ।


रँगे सियारों से तुम बचना ,

कभी न आना चालों में ।

भोले भाले फँस जाते हैं ,

इनके बीने जालों में ।

ठग विद्या है इनका धंधा ,

चिकनी चुपड़ी बातें हैं।

कौन पीठ में छुरा भोंक दे ,

छुपे हुए ये खालों में ।


मेरी एक पड़ोसन मित्रों,

पति को अपने बहुत सताती ।

घर का सारा काम कराकर ,

पैसे भी उससे कमवाती।

पति कोल्हू का बैल बना है ,

किस्मत को है कोस रहा ।

पत्नी का आदेश न माने ,

बस समझो फिर शामत आती ।


स्वतन्त्रता के दीवानों ने ,

इंक़लाब जब बोला था ।

नवल क्राँति की ज्वाला में ,

तब हर सेनानी शोला था ।

नाकों चने चबाया अरिदल ,

त्राहि त्राहि था बोल उठा ।

नाक रगड़ कर भागे सारे ,

जिस जिस ने विष घोला था ।


वो मेरी आँखों के तारे ,

जो मेरे दो लाल दुलारे ।

रात दिवस मैं नज़र उतारूँ ,

मुझको लगते इतने प्यारे ।

एक हूर है ज़न्नत की तो ,

दूजा भी है चाँद का टुकड़ा ।

मां हूँ ख़्याल रखूँ मैं उनका ,

बन जाते वो भी रखवारे ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला

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