आठ मुक्तक पच्चीस मुहावरे
रिश्वतखोरों की मत पूछों ,
ऐसी बाट लगाते हैं ।
मोटी मोटी रकमें लेकर ,
सिर अपना खुजलाते हैं ।
नौ सौ चूहे खाकर बिल्ली ,
हज को जाती हो जैसे ।
आदर्शों का भाषण देकर ,
बकरा खूब बनाते हैं ।
जिसकी लाठी भैंस उसी की ,
बचपन से सुन आयी ।
बाहुबली से डरते हैं सब ,
कहते भाई भाई ।
काला आखर भैंस बराबर ,
भले न वो कुछ जाने ।
फिर भी उसके सारे अवगुण ,
की होवे भरपाई ।
धोबी के कुत्ते बन जाते ,
अपनों को छलने वाले ।
तिरस्कार का दण्ड भुगतते ,
खुद को ही ठगने वाले ।
अपनों के जो हो न सके हैं,
वो क्या जाने वफ़ा यहाँ ।
अंधकार में घिरते इक दिन ,
वो ढोंगी मन के काले ।
दिल वालों की दिल्ली है,
ये बात सुनी थी यारों ।
रहते यहाँ बिलों में देखो ,
काले नाग हजारों।
आस्तीन के सांप हैं ये सब ,
कब डस लें ये खबर नहीं ।
स्वयं बचो अरु देश बचाओ ,
ढूँढ ढूँढ कर मारो ।
रँगे सियारों से तुम बचना ,
कभी न आना चालों में ।
भोले भाले फँस जाते हैं ,
इनके बीने जालों में ।
ठग विद्या है इनका धंधा ,
चिकनी चुपड़ी बातें हैं।
कौन पीठ में छुरा भोंक दे ,
छुपे हुए ये खालों में ।
मेरी एक पड़ोसन मित्रों,
पति को अपने बहुत सताती ।
घर का सारा काम कराकर ,
पैसे भी उससे कमवाती।
पति कोल्हू का बैल बना है ,
किस्मत को है कोस रहा ।
पत्नी का आदेश न माने ,
बस समझो फिर शामत आती ।
स्वतन्त्रता के दीवानों ने ,
इंक़लाब जब बोला था ।
नवल क्राँति की ज्वाला में ,
तब हर सेनानी शोला था ।
नाकों चने चबाया अरिदल ,
त्राहि त्राहि था बोल उठा ।
नाक रगड़ कर भागे सारे ,
जिस जिस ने विष घोला था ।
वो मेरी आँखों के तारे ,
जो मेरे दो लाल दुलारे ।
रात दिवस मैं नज़र उतारूँ ,
मुझको लगते इतने प्यारे ।
एक हूर है ज़न्नत की तो ,
दूजा भी है चाँद का टुकड़ा ।
मां हूँ ख़्याल रखूँ मैं उनका ,
बन जाते वो भी रखवारे ।
सुषमा दीक्षित शुक्ला
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