सौरभ (दोहे)
सौरभ को जीवन समझ, यह जीवन का अंग।
सुरभित सुंदर भाव से, बनता मनुज अनंग।।
सौरभ खुशबूदार से, मानव सदा महान।
सदा गमकता रात-दिन, रीझत सकल जहान।।
सौरभ में मोहक महक, सौरभ अमित स्वरूप।
सौरभ ज्ञान सुगन्ध से, बनत विश्व का भूप।।
जिसमें मोहक गन्ध है, वह सौरभ गुणशील।
सौरभ में बहती सदा ,मधु सुगन्ध की झील।।
स्वादयुक्त आनंदमय,अमृत रुचिकर दिव्य।
सौरभ अतिशय सौम्य प्रिय, सहज मदन अति स्तुत्य।।
सौरभ नैसर्गिक सहज, देवगन्ध का भान।
सदा गमकता अहर्निश, सौरभ महक महान।।
सौरभ दिव्य गमक बना, आकर्षण का विंदु।
सौरभ को ही जानिये, महाकाश का इंदु।।
मानवता (दोहे)
मानवता को नहिं पढ़ा, चाह रहा है भाव।
यह कदापि संभव नहीं, निष्प्रभाव यह चाव।।
नहीं प्राणि से प्रेम है, नहीं सत्व से प्रीति।
चाह रहा सम्मान वह ,चलकर चाल अनीति।।
मन में रखता है घृणा, चाहत में सम्मान।
ऐसे दुर्जन का सदा, चूर करो अभिमान।।
मानव से करता कलह, दानव से ही प्यार।
ऐसे दानव को सदा, मारे यह संसार।।
मानवता जिस में भरी, वह है देव समान।
मानवता को देख कर, खुश होते भगवान।।
मानव बनने के लिये, रहना कृत संकल्प।
गढ़ते रहना अहर्निश, भावुक शिव अभिकल्प।।
मानवता ही जगत का, मूल्यवान उपहार।
मानवता साकार जहँ, वहाँ ईश का द्वार।।
रचनाकार:
डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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