काव्य रंगोली आज का सम्मानित कलमकार ,प्रकाश दान बिजेरी

 कवि परिचय 


कवि का नाम - चारण प्रकाश दैथा 

पिताजी - मुरार दान 

 गांव - बिजेरी 

जिला - बीकानेर 

राज्य - राजस्थान 

रूचि - अनुभवों को कविताओं में ढालना 

मोबाइल - 7665361178

              8824153095


शीर्षक 1 पीड़ा पति की 

 

 शुरू शुरू के दौर में पतिदेव कहलाए थे ।

कुछ दिनों के बाद में जूते चंपल भी खाए थे ।।

जब समय शुरुआती का था तो घर भी उसने सजाया ।

कुछ दिनों के बाद में झाड़ू पौचा भी लगवाया ।।

एक दिन थे जब मैं देव तुल्य पूजा था।

कुछ समय के बाद मैं बहुत जोर से धुजा था ।।

बहुत खुश था पहले जब मां ने खाना खिलाया था ।

उठ गया लड्डू  मन में शादी का उसी ने मुझे रुलाया था ।।

याद है वह दिन जब पेंट शर्ट उसने  भी धोया था ।

फिर दौर एक ऐसा आया मन ही मन रोया था ।।

सलाह बहुत दी साथियों ने मत करना तू शादी ।

मुझे क्या पता कि होगी इतनी बर्बादी ।।


 शिर्षक -2 किस्से कलयुग के 


खाने-पीने और जमाने की कोई जान नहीं ।

उठने बैठने पहनावे का कोई ज्ञान नहीं।।

धोती कुर्ते साड़ी भूल गई सब गहने।

रंग रलिया में फिरते हैं फटी जिन्से पहने ।।

घर बैठकर बापू के देशी खाना भूल गए ।

महफिल जमाए दोस्तों में चाऊमीन बर्गर पर झूल गए ।।

सिनेमाओं का चस्का कर गया बर्बाद में ।

जब खुद कमाने पड़े तब बापू आया याद में ।।

फटी धोती पहने बापू बोए खेतों में जीरा ।

महंगी जिनसे पहन समझे सब अपने को हीरा ।।

बंडल उठाए चारे का जाए बापू लाडी में ।

बीवी के संग बैठ बेटा घुमे  महंगी गाड़ी में ।।

मां बाप अपनी इज्जत देते इनके हाथ में ।

रंग रलिया मना रहे हैं हुस्न वालों के साथ में ।।


          शिर्षक 3- नारी


चौखी कोनी लागे मने इण दुनिया री रीत ।

सगला स्यु ज्यादा हुई मने म्हारे बालम सु प्रीत ।।

दुनिया री रीत रे कारणे घर पापा रो छोड़ियो ।

घर बसावण बालम रो मैं लाल ओढ़णो ओढ़ियो ।।

खूब मेहनत करू हुं मैं कमावण म्हारो नाम ।

चंद लुगाइयां रे कारणे मैं हुई बहुत बदनाम ।।

टाबरा रे कारणे बिगड़ जावे म्हरो चैन ।

जद जावे बालम प्रदेश तब तरसे म्हारा नैण ।।

प्रेम री हुं पुतली सती म्हारो नाम ।

पीयर अने मायके मैं करू घणा हूं काम ।।

ऊनाल्लो हो या वर्षाल्लो हो भले ही सर्द ।

लागे जद म्हारे टाबरा रे घणों होवे  मने दर्द ।।

               

           शिर्षक 4-माॅं 


माॅं शब्द बहुत छोटा है पर अर्थ बहुत बड़ा है।

माॅं तेरे ही प्यार को मैंने कविता में गड़ा है ।।

याद आती है माॅं तेरी हाथ की जली रोटी की ।

याद आती है माॅं तेरी सुनाई खरी-खोटी की ।।

ऊब गया हूं माॅं मैं इस मैस का खाना खाकर ।

तेरी हाथ की जली रोटी खिला दे माॅं तु यहां आकर ।।

बहुत मिठाइयां मंगवाई माॅं मैंने होटलों पर से ।

मगर उस मिठास की कमी थी जो मिला मुझे तेरे कर से ।।

इश्क और मोहब्बत की रीत मुझे पसंद नहीं ।

माॅं तेरे प्यार सा ना मिला मुझे आनंद कहीं ।।

पसंद ना आई माॅं मुझे यह चमक-दमक सी छात्रावास ।

काश खुदा बना देता कोई तेरे आंचल सा आवास ।।

बेचैन हो जाता हूं अक्सर इस दुनिया की रीतों में ।

शुकुन मिलता है माॅं मुझे तेरे मीठे गीतों में ।।

अक्सर बेचैन हो जाते हैं कुछ लोग रोते-रोते ।

जिनकी माॅं नहीं होती थक जाते हैं वो माॅं की बाट जोते-जोते ।।

                           

             

      शिर्षक 5 - बुरा गया तू बीस 


ना जाने किस कदर गुजरा था यह दौर ।

मायूसी छाई थी हमारे चारों और ।।

किस कदर महामारी का रंग तेरे चढ़ गया था ।

यह सब होना वाजिब था कलयुग का स्तर जो बढ़ गया था ।।

पूरी दुनिया में तूने हड़कंप मचा दिया ।

तूने तो अपना इतिहास अलग ही रचा दिया ।।

मंदिर सारे बंद हुए जिन्हें देवालय कहते थे ।

अस्पताल हमारे काम आए जहां चिकित्सक रहते थे ।।

ऐसा लगता था जैसे यमराज स्वयं नीचे आया था ।

जहां भी देखो मातम ही मातम छाया था ।

बैठ गए सब घरों में जैसे पशु को पकड़े जाल ।

या कलयुग का स्तर बढ़ा या थी खुदा की चाल ।। 

लगा था चारों ओर सन्नाटा एक के पीछे एक का मरना ।

बस इतनी दुआ है खुदा से दोबारा ऐसा कभी मत करना ।।


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