ग़ज़ल ---
1.
क्या खाक जुस्तजू करें हम सुब्हो-शाम की
जब फिर गईं हों नज़रें ही माह-ए-तमाम की
2.
शोहरत है इस कदर जो हमारे कलाम की
नींदें उड़ी हुई हैं यूँ हर खासो-आम की
3.
हर शख़्स हमको शौक से पढ़ता है इसलिए
करते हैं बात हम जो ग़ज़ल में अवाम की
4.
जो कुछ था वो तो लूट के इक शख़्स ले गया
जागीर रह गई है फ़कत एक नाम की
5.
खोली किताबे-इश्क़ जो उसकी निगाह ने
उभरीं हरेक हर्फ़ से मोजें पयाम की
6.
ज़ुल्फों में उसकी फूल भला कैसे टाँकता
हिम्मत बढ़ाई उसने ही अदना गुलाम की
7.
ज़ुल्फ़े-दुता का नूर अँधेरों को बख़्श दे
प्यासी है कबसे देख ये तक़दीर शाम की
8.
*साग़र* धुआँ धुआँ है फ़जाओं में हर तरफ़
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की
🖋️ग़ज़ल ---
1.
क्या खाक जुस्तजू करें हम सुब्हो-शाम की
जब फिर गईं हों नज़रें ही माह-ए-तमाम की
2.
शोहरत है इस कदर जो हमारे कलाम की
नींदें उड़ी हुई हैं यूँ हर खासो-आम की
3.
हर शख़्स हमको शौक से पढ़ता है इसलिए
करते हैं बात हम जो ग़ज़ल में अवाम की
4.
जो कुछ था वो तो लूट के इक शख़्स ले गया
जागीर रह गई है फ़कत एक नाम की
5.
खोली किताबे-इश्क़ जो उसकी निगाह ने
उभरीं हरेक हर्फ़ से मोजें पयाम की
6.
ज़ुल्फों में उसकी फूल भला कैसे टाँकता
हिम्मत बढ़ाई उसने ही अदना गुलाम की
7.
ज़ुल्फ़े-दुता का नूर अँधेरों को बख़्श दे
प्यासी है कबसे देख ये तक़दीर शाम की
8.
*साग़र* धुआँ धुआँ है फ़जाओं में हर तरफ़
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की
🖋️विनय साग़र जायसवाल बरेली
जुस्तजू -खोज ,तलाश
माह-ए-तमाम-पूर्णमासी का चंद्रमा
ज़ुल्फ़े-दुता-स्याह गेसू
नूर-प्रकाश
इंतकाम-बदला
24/5/1979 बरेलीजुस्तजू -खोज ,तलाश
माह-ए-तमाम-पूर्णमासी का चंद्रमा
ज़ुल्फ़े-दुता-स्याह गेसू
नूर-प्रकाश
इंतकाम-बदला
24/5/1979
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें