हे ! दुनिया के मालिक
सुबह -सुबह जगकर चिड़िया,
मेरी मुंडेर पर आती है।
अपने मीठे कलरव से वो,
सबसे पहले जगाती है।
बाग - बगीचों की खुशबू ,
फिजाओं में घुल जाती है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद तुम्हारी आती है।
सागर की लहरों से बादल,
जब नील गगन में छाता है।
उमड़-घुमड़कर करता बारिश,
धरा को धानी करता है।
सज्जित तन को देख-देखकर,
धानी धरा मुसकाती है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद तुम्हारी आती है।
बंजर को उपजाऊ बनाने,
पर्वत से नदी उतरती है।
कहीं पे गहरी, उथली कहीं,
सूरज की पाती पढ़ती है।
जीना मुहाल किया ये मानव,
धुन -धुन जब पछताती है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद तुम्हारी आती है।
मानव भी है नभ में उड़ता,
इसको बड़ा अभिमान है।
एटम-बम की सेज पर सोता,
मन में बड़ा तूफ़ान है।
अपनी भाषा में जब कुदरत,
लोगों को समझाती है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद तुम्हारी आती है।
ऊपर से कोई साया नहीं,
वो जिस्म का धंधा करती है।
उसके हक़ की धूप चुराकर,
दुनिया मौज मनाती है।
आंसू की दरिया में बेचारी,
जब जख्म वो अपना धोती है।
हे! दुनिया के मालिक मुझको,
याद तुम्हारी आती है।
- रामकेश एम. यादव (कवि, साहित्यकार)मुंबई
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