स्वरचित सृजन
30.3.2021
मन के पके भाव जब व्यक्त करती
तो किसी का अहम् रोकता है
रिश्तों की दुहाई स्वयं को देती
भूल जाती स्त्री फिर उन्हें ।
नारी उत्थान की बातें करने वाले
घुसते ही घर में जब
स्त्री से पैर धुलवा
दर्प से काँधे पर टँगे अंगौछे से
झुकी निगाहों पर
अहम् की दृष्टि गड़ाते हैं
तब खो जाती हैं
अनगिनत चीत्कार
घुटी साँसों में
जो दिखा भी नहीं पाती रोष
पलकें ऊपर कर ।
घर की चार दीवारी और निकले कदम
ऐसे ही हैं जैसे धरती अंबर
देखते है हर क्षण एक दूसरे को,
पर दूर से
तरसती निगाहों को कब किसने समझा
नाम दे दिया क्षितिज का ।
नारी ढकती सबके ऐब
अपने में समेटती सभी राग विराग
पीती नित गरल भावनाओं के
बन जाती शक्ति से शिव ।
पर कौन समझे उसे,
याद तभी आती है,जब कोई रक्तबीज
नहीं आता बस में
तब साम दाम दण्ड भेद से
बना चंडिका उपयोग करते उसे ।
और स्त्री फिर धीर,शील टूटी कड़ियों को जोड़ने में लग जाती
नित पीती हुई विष
कभी अपने परिवार के लिए
कभी समाज के लिए ।
और फिर एक ढोल बजता
रोज की तरह नारी शक्ति जिंदाबाद ।
स्त्री आधी आबादी जिंदाबाद
एक अनचाही हंसी
फिर मन में ठहाका लगाती करती चीत्कार अंतर्मन में ।
ये ही सच्चाई है नारी उत्थान की
इस सृष्टि पर ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
अखिल विश्व काव्यरंगोली परिवार में आप का स्वागत है सीधे जुड़ने हेतु सम्पर्क करें 9919256950, 9450433511