राम बाण🏹
मन के मौला मन के मौजी
मन में राग जगाये हैं।
भ्रमर भ्रमर गुंजित मन ने,
कितने बाग सजाये है।
इच्छाओं के बादल उमड़े,
घुमड़ घुमड़ के गरज रहे।
लोकतंत्र के प्यादे घर में,
धमकी देकर धमक रहे।
सेना पर पत्थर फेंके वो,
भटके राही पाये है।
कहीं सोच है कहीं लोच है,
कहीं सड़क ये रोक रहे।
किसके किस्से गढ-गढकर,
कुत्ते कौमी भौंक रहे।
आशाओं के पानी उतरे,
कितने ख्वाब बहाये हैं।
सेवा की सरकार निराली,
मुफ्त लुत्फ है लुटा रही।
हसीन सपने सजा-सजाकर,
गुप्त में दाल पका रही।
अम्मी चाची फूफी ने भी,
अनशन बाग लगाये है।
अब्बू खां की बकरी गायब
पता नहीं क्यों कहांँ गई।
लंगर खाने और जनाने
धौंस जमाने वहाँ गई।
समझ रखे हैं नासमझी की
मद में घात लगाये हैं।
लोकतंत्र की साख मिटाने
किनने दाग लगाये हैं।
डॉ रामकुमार चतुर्वेदी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें