जय जिनेंद्र देव

*गाँव की होली...*
विधा : कविता

होली आते ही मुझे
याद गाँव की आ गई। 
कैसे मस्ती से गाँव में 
होली खेला करते थे।
और गाँव के चौपाल पर
होली की रागे सुना थे। 
अब तो ये बस सिर्फ
यादे बनकर रह गई।। 
क्योंकि

मैं यहां से वहां
वहां से जहां में। 
चार पैसे कमाने
शहर जो आ गया।। 

छोड़कर मां बाप और 
भाई बहिन पत्नी को। 
चार पैसे कमाने 
शहर आ गया। 
छोड़कर गाँव की 
आधी रोटी को। 
पूरे के चक्कर में 
शहर आ गया। 
अब न यहाँ का रहा 
न वहाँ का रहा।
सारे संस्कारो को
अब भूल सा गया।। 
चार पैसे कमाने....। 

गाँव की आज़ादी को 
मैं समझ न सका। 
देखकर शहर की
चका चौन्ध को। 
मैं बहक कर गाँव से
शहर आ गया।
और मुँह से आधी रोटी
भी मानो छूट गई।। 
चार पैसे कमाने...। 

सुबह से शाम तक 
शाम से रात तक। 
रात से सुबह तक
सुबह से शाम तक। 
मैं एक मानव से 
मानवमशीन बन गया। 
फिर भी गाँव जैसा मान
शहर में  न पा सका।। 
चार पैसे कमाने 
यहाँ वहाँ भटकता रहा।
छोड़कर गाँव को
मैं शहर आ गया।। 

आज होली के दिन
रंगो के उड़ते ही 
बीतेदिन याद आ रहे। 
पर जिंदगी को अपनी
वहाँ से कहाँ तक ला दिया।
और भूल से गये शहर में
अब तो होली खेलना।
कहाँ गाँव का चौपाल है 
अब तो बंद है चार दिवारी में, बस चार दिवारी में।। 


आप सभी को होली की बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएं। 

जय जिनेंद्र देव
संजय जैन मुंबई
28/03/2021

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...